- बता रहे हैं, जैविक खेती के पक्षधर पद्मश्री बाबूलाल दाहिया
- एक बार भी स्वाद चख लिया तो जीवन पर्यंत रहेगी अनुभूति
खेत में लहलहाती छिगरी नामक अरहर, जिसका स्वाद होता है बेमिसाल। |
मित्रो ! अंग्रेजी के दो शब्द हिंदी में भी बहुत प्रसिद्ध है। क्वालटी और क्वान्टिटी, पहले का आशय है गुणवत्ता एवं दूसरे का मात्रा। पर इतना भर नही प्रकृति का एक नियम भी है कि वह हर चीजों में संतुलन बनाकर रखती है। अगर सूर्य और पृथ्वी के बीच ही संतुलन न रहे तो वह सूर्य में समा जाय। अथवा यदि पृथ्वी व चंद्रमा के बीच संतुलन न हो तो वह टूट कर हमारी धरती में गिर जाय। इसी तरह यदि किसी वस्तु की अधिक पैदावार होगी तो उसके गुणवत्ता में निश्चय ही कमी होगी। और यदि पैदावार कम होगी तो उसमे गुणवत्ता भरपूर होगी। जिसे सतना जिला के उचेहरा ब्लाक स्थित परसमनिया पठार की इस छिगरी नामक अरहर में भली भांति देखा जा सकता है।
आज बाजार में बहुत प्रकार की रंग बिरंगी आकर्षक दानों की अरहर एवं उसकी दाल उपलब्ध है। कुछ ऐसी बिपुल उत्पादक किस्मे आ गई हैं, जो पूस माघ में ही पक जाती हैं व भरपूर उत्पादन देती हैं। किन्तु जो स्वाद परसमनिया पठार की चैत्र बैसाख में कट कुट कर घर आने वाली इस छिगरी नामक अरहर में है वह सब बैज्ञानिको की निकाली हुई बिपुल उत्पादन वाली किस्मों में नहीं है। वह स्वाद में इस छिगरी के मुकाबले दो कौड़ी की भी नहीं लगती। आषाढ़ में बोई जाकर बैसाख में लौट कर किसान के घर आने वाली इस अरहर पर तो एक पहेली भी थी कि....
जेठवा तोर कान करेव नहि लइजातिउ असाढ़बय तान।
अर्थातु- जेठ मैने तुम्हारा सम्मान किया अस्तु कट कुट कर बैसाख में घर आ गई। अगर बीच मे तुम न होते तो आषाढ़ में ही आती। क्यों कि यहां की संस्कृति में अनुज बधू एवं जेठ के बीच एक बहुत सम्मान का रिश्ता होता है। लेकिन इतना भर नहीं, सतना जिले की इस दाल को और भी स्वादिस्ट एवं गुणवत्ता पूर्ण बना देने वाली एक तकनीक भी यहां विकसित है। वह है अरहर को भून कर उसकी दाल का उपयोग करना।
परन्तु यह सब करने में समय और ज्ञान का समन्वय भी जरूरी होता है। दाल भूनने के पहले अरहर को रात्रि में पानी में फुला दिया जाता है और सुबह उतरा कर ऊपर आए हुए विकृत दानों को अलग कर दिया जाता है। ऐसा कर देने से उस अरहर में साबूत दाने ही रह जाते हैं। क्योंकि उसमें बहुत सी कीड़ो से कटी अधखाई हुई अरहर भी होती है जिसे यहां की बोली में " किचुहिली" कहा जाता है। किचुहिली मिली दाल भी स्वाद को बिगाड़ देती है।
इस तरह किचुहिली को निकाल कर उस अरहर को आंगन में सूखने के लिए डाल दिया जाता है। और जब वह सूख जाती है तब एक घड़े का ऊपरी हिस्सा फोड़ नीचे वाले हिस्से को चूल्हे में चढ़ा कर उसे हल्का हल्का भूना जाता है। उस अरहर भूनने के मिट्टी पात्र को खपडी कहा जाता है। यह सब करने के पश्चात खपडी से भुनी उस अरहर को हाथ चलित देसी चकरिया से दल कर दाल निकाल ली जाती है।
लीजिए यह है विशेष तकनीक से निकाली गई बघेल खण्ड की परम्परागत अरहर छिगरी एवं उसकी भून कर दली हुई दाल जो सदियों से लोगो के जीभ और मन में बसी हुई है। यदि किसी ने एक बार भी उसका स्वाद चख लिया तो जीवन पर्यंत उसकी अनुभूति बनी रहती है।
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