Monday, January 18, 2021

अजयगढ़ दुर्ग के वास्तु शिल्प को देख मंत्रमुग्ध हुए खनिज मंत्री

  •  पुरातात्विक महत्व के इस ऐतिहासिक धरोहर का संरक्षण व विकास जरुरी 
  •  मंत्री ब्रजेन्द्र प्रताप सिंह ने कहा पर्यटन की द्रष्टि से महत्वपूर्ण है यह दुर्ग 

अजयगढ़ दुर्ग के रंगमहल की भव्यता व अनूठी शिल्प कला को निहारते मंत्री ब्रजेन्द्र प्रताप सिंह।  

।। अरुण सिंह ।।

पन्ना। किसी समय चन्देल राजाओं के शक्ति का केन्द्र रहा मध्यप्रदेश के पन्ना जिले का ऐतिहासिक अजयगढ़ दुर्ग उपेक्षा के चलते खण्डहर में तब्दील होता जा रहा  है। जिला मुख्यालय से लगभग 30 किमी की दूरी पर विन्ध्यांचल की दुर्गम पर्वत श्रेणियों पर स्थित यह अजेय दुर्ग अपने जेहन में भले ही  वीरता की अनेकों गौरव गाथायें सहेजे है , लेकिन इसके बावजूद यहां  भूले भटके भी पर्यटक दिखाई नहीं  देते। चंदेल राजाओं द्वारा निर्मित इस दुर्ग की वास्तुकला के अवशेषों का अवलोकन करने पर ऐसा प्रतीत होता है  कि खजुराहो  और कालींजर के विश्व प्रसिद्ध शिल्प के शिल्पियों के हांथ में इतनी पैनी छैनियां नहीं थीं, जितनी की अजयगढ़ दुर्ग के वास्तुकारों के पास थीं। वास्तव में अजयगढ़ का किला वास्तु शिल्प की दृष्टि से अधिक कलात्मक, अनूठा और बेजोड़ है।

उल्लेखनीय है  कि खजुराहो  शिल्प में यक्ष-यक्षिणी की मैथुन मुद्राओं को पाषाण पर उकेर कर जहाँ  जीवंत रूप प्रदान किया गया है , वहीँ अजयगढ़ की शिल्पकला सत्यं, शिवम, सुन्दरम् की गरिमा से युक्त है । राजाओं और महाराजाओं के उत्थान एवं पतन के इतिहास को अपने जेहन में समेटे अजयगढ़ दुर्ग का प्राकृतिक सौन्दर्य चिरस्थायी है । पर्वत शिखरों से फूटते झरने, नागिन सी बल खाती घाटियां, मनोरम गुफायें, गहरी खाईयां, विशाल सरोवर व श्याम गौर चïट्टानें दर्शकों का मन मोह लेती  हैं। इसके बावजूद इस अनूठे दुर्ग की लगातार घोर उपेक्षा हुई है , जिससे यह अभी तक पर्यटन के मानचित्र से ओझल बना हुआ है । गौरतलब है  कि चन्देल राजाओं द्वारा निर्मित इस भव्य दुर्ग के निर्माण में पत्थरों का तो प्रयोग किया गया है  किन्तु उनको जोडऩे में कहीं  भी मसाले का प्रयोग नहीं  हुआ । जानकारों का कहना है  कि इसके निर्माण में गुरूत्वाकर्षण के सिद्धातों के आधार पर कोणीय संतुलन विधि का प्रयोग किया गया है । प्राकृतिक झंझावातों, प्रकोपों, मानवीय युद्धों के विध्वंशक प्रहारों  तथा अभिशापों को झेलने वाला यह दुर्ग अपनी भव्यता, अद्वितीयता और सुदृढ़ता का परिचय दे रहा है , जो निश्चित ही  खजुराहों  तथा अन्य ऐतिहासिक स्थलों से किसी भी दृष्टि से कम नहीं  है।


स्थानीय पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ किले में भ्रमण करते हुए खनिज मंत्री। 

मकर संक्रांति पर्व के अवसर पर प्रदेश शासन के मंत्री व स्थानीय विधायक ब्रजेन्द्र प्रताप सिंह अजयगढ़ प्रवास के दौरान जब इस प्राचीन दुर्ग का भ्रमण किया तो यहाँ की अनूठी वास्तु शिल्प और कला को देख मंत्रमुग्ध हो गये। मंत्री जी ने कहा कि अजयगढ़ के चंदेलकालीन किले में निर्मित रंगमहल की अदभुत कलाकारी को देखा, जो पर्यटन की द्रष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि अजयगढ़ का ऐतिहासिक दुर्ग पुरातात्विक महत्व के साथ - साथ एक कला तीर्थ भी है, जिसका संरक्षण किया जाकर सुनियोजित विकास कराया जायेगा। ताकि पर्यटन की द्रष्टि से अजयगढ़ किला अपनी एक अलग पहचान बना सके। मंत्री के भ्रमण से स्थानीय लोगों में चंदेल शासकों के शक्ति का केन्द्र रहे अजयगढ़ दुर्ग के विकास की उम्मीद जागी है।    

कला साधकों की आश्रय स्थली रहा है अजयगढ़ दुर्ग


अजयगढ़ दुर्ग का रंगमहल। 

पन्ना जिले का अजयगढ़ दुर्ग सैकड़ों वर्ष पूर्व चंदेल शासकों के शक्ति का केंद्र रहा है। ऊंची पहाड़ी पर स्थित इस दुर्ग को अजेय कहा जाता था। ऐतिहासिक महत्व के इस प्राचीन दुर्ग की स्थापत्य एवं मूर्तिकला मंत्रमुग्ध कर देने वाली है। यहां की मूर्तिकला में संगीत व नृत्य के अनेक दृश्यों का चित्रण हुआ है। सामरिक दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण रहे अजयगढ़ दुर्ग में उत्कीर्ण प्रतिमाओं को देखने से यह प्रतीत होता है कि तत्कालीन शासकों की संगीत व नृत्य कला में गहरी अभिरुचि थी।

 ऐसा कहा जाता है कि विश्व प्रसिद्ध खजुराहो के मंदिरों का निर्माण अजयगढ़ दुर्ग के बाद हुआ है। चंदेल काल को कालिंजर एवं अजयगढ़ के इतिहास का स्वर्णिम युग कहा जाता है। क्योंकि इसी काल में इन दुर्गों को राजनीतिक, सामरिक एवं सांस्कृतिक गरिमा प्राप्त हुई। उस समय संगीत व मूर्तिकला को काफी महत्व दिया जाता था। स्त्रियों की भी संगीत साधना में गहरी अभिरुचि थी तथा तत्कालीन समाज उनकी इस स्वाभाविक गतिविधि में बाधक नहीं था। स्त्रियां अपनी इच्छानुसार किसी भी ललित कला का चयन कर सकती थीं। यही कारण है कि चंदेल काल में संगीत व नृत्य कला ने अप्रतिम शिखर की ऊंचाइयों को हासिल किया। अजयगढ़ व कालिंजर दोनों ही दुर्गों की मूर्ति कला में संगीत के वाद्य यंत्रों को बजाते हुए स्त्रियों का बड़ा ही मनोहारी अंकन मिलता है। अजयगढ़ के रंग महल मंदिर समूह के द्वितीय मंदिर के मंडप में बांसुरी बजाते हुए एक सुर - सुंदरी की अत्यधिक कमनीय मूर्ति है। वह दो हाथों में बांसुरी पकड़े हुए बजाते दिखाई गई है। इस प्रकार की बांसुरी वादिकाओं की मूर्तियां अन्य मंदिरों के मंडपों में भी प्राप्त होती हैं। कालिंजर के नीलकंठ मंदिर के मंडप में बांसुरी वादिका का सुंदर अंकन है। पुरुषों के द्वारा बांसुरी बजाने का शिल्पांकन  कालिंजर और अजयगढ़ में मिलता है। बांसुरी वादन के दृश्यों की बहुलता इस बात का द्योतक है कि तत्कालीन युग में बांसुरी सर्वाधिक लोकप्रिय वाद्य था। बांसुरी के अलावा ढोलक, मजीरा, डमरु, शंख, झालर आदि वाद्य यंत्रों का भी उस काल में बहुतायत से प्रयोग होता था। चंदेल काल में नृत्य कला को भी काफी बढ़ावा मिला। कालिंजर व अजयगढ़ के मंदिरों में नृत्य के सुंदर दृश्यों का शिल्पांकन किया गया है। कालिंजर में नीलकंठ मंदिर के प्रवेश द्वार पर पट्टिका में नृत्य का बड़ा सुंदर दृश्य उकेरा गया है। उस काल में मंदिर नृत्य व संगीत साधना के केंद्र हुआ करते थे। चंदेल राजाओं द्वारा निर्मित खजुराहो के विश्व प्रसिद्ध मंदिर भी उस समय नृत्य, संगीत व तंत्र साधना के केंद्र रहे हैं। इन मंदिरों में साधकों को ऊर्जा के उर्ध्वगमन की शिक्षा दी जाती थी। फलस्वरुप साधक कामवासना का अतिक्रमण कर अध्यात्म के रहस्यों का साक्षात्कार करने में सफल होते थे। नृत्य, संगीत व तंत्र साधना के सूत्र व अनगिनत रहस्य आज भी अजयगढ़ के प्राचीन दुर्ग व खजुराहो के मंदिरों में छिपे हैं। इन रहस्यों को जानने व समझने के लिए वही अंतर्दृष्टि चाहिए जो उस काल के रहस्यदर्शियों व मनीषियों के पास थी। जानकारों का कहना है कि खजुराहो के मंदिर व अजयगढ़ का दुर्ग सिर्फ पर्यटकों के घूमने व भ्रमण करने की जगह नहीं है, बल्कि यहां की आबोहवा में गहरी आध्यात्मिक अनुभूतियां भी होती हैं।

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