- काश! एक दिवस गाँव के इन तकनीसियों का भी होता ?
आज हम विज्ञान के युग मे रह रहे हैं, जहां तरह-तरह के यंत्र हैं। यंत्र की परिभाषा शायद यही होगी कि " मनुष्य द्वारा निर्मित वह जुगाड़ जो उसके इसारे पर गतिमान हो जाय?" पर वह इसी से सम्भव हुआ कि उसमे मनुष्य के दो अदद फुर्सत के हाँथ और एक अदद विलक्षण बुद्धि का भी योगदान था। बुद्धि ने जहां कल्पना की, वहीं हाथों ने उसको मूर्त रूप दिया।
मनुष्य के इस विद्या का पहला गुरु शायद गोबरौरा कीट रहा होगा। क्योंकि वह जब जमीन में गढ्ढे खोद कर अंडे देता है, तो भविष्य में उनसे निकलने वाले बच्चों के खाने के लिए ढेर सारा जानवरों और मनुष्यों का मल वहां एकत्र कर देता है। पर उसे वह सीधे उठाकर ले जाने के बजाय गोले बना लेता है और फिर लुढ़काता हुआ ले जाता है। लेकिन उससे उसे लाभ यह होता है कि वह अपने वजन का 3--4 गुना अधिक गोला एक बार में ही लुढ़काकर ले जाता है।
फिर क्या था ? मनुष्य को उसकी यह करतूत देख न सिर्फ एक अच्छा सा गुरु मिल गया बल्कि उसके गुरुज्ञान की एक तकनीक भी। और फिर वही तकनीक बनी पहिए की खोज। जिसके बूते आज रेल ,बस, वायुयान सब कुछ उसी के ऊपर ही चलते हैं। हमारे गाँव इस तरह के तमाम इंजीनियरों और उनकी जुगाड़ तकनीकों से भरे पड़े थे जिनमें कुछ के तकनीशियन तो विषम परिस्थिति के चलते भी आज तक मौजूद हैं।
प्राचीन समय से ही कुम्हार के चाक, बुनकर के तकली, करघे से लेकर तेली के कोल्हू तक किसी न किसी रूरल इंजीनियर की तकनीक ही थी, जो गाँव को आत्म निर्भर इकाई बनाए हुए थी। तेली के इस कोल्हू को ही देख लीजिए कि लोहे की कहीं एक कील भी नहीं। बस लकड़ी, रस्सी कपड़े के टुकड़े और पत्थर के बूते ही चल रहा है। किन्तु बैलेंस का पूरा-पूरा ध्यान। जब दुबला पतला तेली बैठ जाए तो दूसरे छोर में पत्थर भी रख ले। पर यदि उसके स्थान पर कोई मोटा ब्यक्ति बैठ जाय, तो पत्थर हटा दे। लेकिन उनका भार बैल के कंधे में जरा भी नही? क्योंकि कोल्हू की लाठ घूम भी रही है, किन्तु पूरा वजन उठाकर।
@बाबूलाल दाहिया
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अति सुंदर आपके द्वारा प्रस्तुत विषय पूर्व ज्ञान को सभी के समक्ष रखने के लिए सहायक है जिससे उम्र दराज लोग पुरानी बातों को देखकर जहां अच्छा महसूस करते हैं वही नई उम्र के लोग भी इन चीजों को देखकर अपने बुजुर्गों की तकनीकी को सर आहतें है अच्छी प्रस्तुति के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद
ReplyDeleteधन्यवाद ! बहुत आभार !!
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