Friday, May 14, 2021

खेजड़ी के वृक्ष को राजस्थान में क्यों कहते हैं कल्पवृक्ष ?

  • इस वृक्ष को बचाने विश्नोई समाज के 363 लोगों ने कटा दिए थे सिर
  • इतिहास के पन्नों पर अंकित है बलिदान की यह प्रेरणादायी दास्तान 

राजस्थान का राज्य वृक्ष खेजड़ी या शमी। (फोटो इंटरनेट से साभार) 

।। अरुण सिंह ।।

खेजड़ी या शमी के वृक्ष को राजस्थान में कल्पवृक्ष कहा जाता है। अनूठे गुणों से भरपूर तथा मरुस्थल की भीषण तपिश में इसकी उपयोगिता को देखते हुए खेजड़ी को 1983 में राजस्थान का राज्य वृक्ष घोषित किया गया था। तत्कालीन शासकों द्वारा खेजड़ी के वृक्षों को कटवाये जाने पर विश्नोई समाज ने न सिर्फ पुरजोर विरोध किया था अपितु वृक्षों को कटने से बचाने के लिए समाज के 363 लोगों ने अपने सिर कटा दिए थे। खेजड़ी के पेड़ को कटते देख सबसे पहले अमृता देवी पेड़ से लिपट गई थीं, फलस्वरूप सैनिकों ने खेजड़ी के पेड़ के साथ अमृता देवी का सिर भी काट दिया था। पर्यावरण संरक्षण के लिए बलिदान की यह कहानी इतिहास के पन्नों पर दर्ज है। राजस्थान में यह कहावत प्रचलित है कि "सर साठे रूख रहे, तो भी सस्तों जांण" अगर सिर कटने से वृक्ष बच रहा हो तो ये सस्ता सौदा है।

उल्लेखनीय है कि खेजड़ी का यह वृक्ष विभिन्न देशों में पाया जाता है, जहाँ इसके अलग अलग नाम हैं। अंग्रेजी में यह प्रोसोपिस सिनेरेरिया नाम से जाना जाता है। खेजड़ी का वृक्ष जेठ के महीने में भी हरा रहता है। ऐसी गर्मी में जब रेगिस्तान में जानवरों के लिए धूप से बचने का कोई सहारा नहीं होता, तब यह पेड़ छाया देता है। जब खाने को कुछ नहीं होता है तब यह चारा देता है, जो लूंग कहलाता है। इसका फूल मींझर कहलाता है तथा इसका फल सांगरी कहलाता है, जिसकी सब्जी बनाई जाती है।

 यह फल सूखने पर खोखा कहलाता है जो सूखा मेवा है। इसकी लकड़ी मजबूत होती है जो किसान के लिए जलाने और फर्नीचर बनाने के काम आती है। इसकी जड़ से हल बनता है। अकाल के समय रेगिस्तान के आदमी और जानवरों का यही एक मात्र सहारा है। सन 1899 में जब दुर्भिक्ष अकाल पड़ा था जिसको छपनिया अकाल कहते हैं, उस समय रेगिस्तान के लोग इस पेड़ के तनों के छिलके खाकर जिन्दा रहे थे। बताया जाता है कि इस पेड़ के नीचे अनाज की पैदावार ज्यादा होती है।

इस अनूठे वृक्ष का सांस्कृतिक व धार्मिक महत्व भी है। दशहरे के दिन शमी के वृक्ष की पूजा करने की परंपरा है। रावण दहन के बाद घर लौटते समय शमी के पत्ते लूट कर लाने की प्रथा है, जो स्वर्ण का प्रतीक मानी जाती है। इसके अनेक औषधीय गुण भी है। पांडवों द्वारा अज्ञातवास के अंतिम वर्ष में गांडीव धनुष इसी पेड़ में छुपाए जाने के उल्लेख मिलते हैं। इसी प्रकार लंका विजय से पूर्व भगवान राम द्वारा शमी के वृक्ष की पूजा का उल्लेख मिलता है। 

शमी या खेजड़ी के वृक्ष की लकड़ी यज्ञ की समिधा के लिए पवित्र मानी जाती है। वसन्त ऋतु में समिधा के लिए शमी की लकड़ी का प्रावधान किया गया है। इसी प्रकार वारों में शनिवार को शमी की समिधा का विशेष महत्त्व है। खेजरी पेड़ की लम्बाई थार में आमतौर पर लगभग 24 फीट होती है और इसकी जड़ें जमीन में लगभग 90 फीट की गहराई तक चली जाती हैं। औषधीय रूप से भी खेजड़ी वृक्ष बहुत उपयोगी है।

क्या आप इस फली को जानते है?


यह राजस्थान के मसहूर पौधा " खेजड़ी" की फली है। 

 जैव विविधता के संरक्षण तथा जैविक खेती को बढ़ावा देने में उल्लेखनीय योगदान देने वाले "बाबूलाल दाहिया जी" ने इस वृक्ष व इसमें लगने वाली फली के बारे में रोचक जानकारी साझा की है। जो यहाँ यथावत प्रस्तुत है -      

 जी हां, आप लोगों में से बहुत से लोग इसे नहीं जानते होंगे। पर यह राजस्थान के मसहूर पौधा " खेजड़ी" की फली है। आज जिस तरह आक्सीजन के कारण हजारों लोग अस्पतालों में दम तोड़ रहे हैं, तो हर पौधे की उपयोगिता और अन्य जीवों से उनके अंतर सम्बन्धो को जानना आवश्यक है। खेजड़ी की वहाँ हर मांगलिक अवसरों में पूजा होती है और उसे खेजड़ी माता नाम से जाना जाता है, जिस पर बहुत से लोकगीत भी हैं।

 हम लोग जब 4 दिवसीय थार के रेगिस्तान प्रवास में थे, तो बाजरा की रोटी और खिचरा के साथ प्रति दिन इसी फली की सब्जी ही खाते थे। आपने अमृता देवी विश्नोई का नाम अवश्य सुना होगा, जिनने खेजड़ी को बचाने के लिए अपनी जान दे दी थी। वे इस उपयोगी पेड़ में लिपट गई और उसे तभी कटने दिया जब राजा के सिपाहियों ने पहले उन्हें अपने कुल्हाड़े से काट डाला।

यू भी  खेजड़ी की विचित्र कहानी है। अगर रेगिस्तान में खेजड़ी न हो तो ऊँट भूखों मर जाए और अगर ऊँट न हो तो खेजड़ी का बीज अंकुरित ही न हो। इस तरह यह दोनों के जीवन संघर्ष की जुगलबन्दी भी कम रोचक नही? दरअसल खेजड़ी के बीज को अंकुरण के लिए 27 दिन की नमी की आवश्यकता होती है । पर जिस थार के रेगिस्तान में मात्र 58 मि. मी. ही वर्षा होती हो वहां भला 27 दिन की नमी उसे कहां से मिले? किन्तु ऊँट और खेजड़ी ने तरीका खोज रखा है।

वह यह कि खेजड़ी के पौधे के फल ठीक उस समय पकते हैं जब पकने के 5- 6 दिन बाद मानसून की बारिश शुरू हो जाय। इस तरह उसके पके फल को ऊट खाता है, जिसका बीज दो दिन की नमी उसके पेट में लेता है। किन्तु उसके पश्चात आंवले के फल के बराबर जब वह मेंगनी करता है, तो 5 दिन की नमी उसे उस लेडी से मिलती रहती है और फिर 20 दिन की नमी मानसूनी बारिश से मिल जाती है। इस तरह उस रेगिस्तानी रेत में खेजड़ी का पौधा उग आता,जिसकी अवस्था एक हजार वर्ष की होती है। और फिर ऊँट बारहों मास उसकी पत्तियां खाता रहता है। थार के रेगिस्तान में लोग इसके फली की हरी सब्जी भी खाते हैं  और बाद में सुखाकर बारहो माह सूखे फलों की सब्जी भी खाते रहते हैं।

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