Monday, May 31, 2021

अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा अगरिया समुदाय

  • इसी समुदाय ने की थी लौह अयस्क की खोज
  • कभी के माने हुए बैज्ञानिक आज बेचारे असहाय           


@ बाबूलाल दाहिया

 मित्रो, बीज बचाओ कृषि बचाओ यात्रा से एक अनुभव यह भी हुआ कि मण्डला, उमरिया, शहडोल वाला यह छत्तीशगढ़ से जुड़ा भूभाग अगर अपनी मौलिक और विशिष्ट शैली की खेती के लिए प्रसिद्ध है, तो एक विशिष्टता लौह अयस्क की खोज करने वाला दुनिया का पहला बैज्ञानिक अगरिया समुदाय भी वहां निवासरत है।

 दुनिया की 4 क्रांति मशहूर हैं, जिनने मनुष्य की जीवन शैली ही बदल कर रख दी है। इन्हें क्रमश: आग की खोज, पहिए की खोज, लौह अयस्क की खोज और कम्प्यूटर की खोज नाम से पहचाना जाता है। पर आज से लगभग 28 सौ वर्ष पहले जो लौह अयक्स की खोज हुई और उससे खेती तथा उद्योग में जो क्रान्ति हुई उसे धरती में लाने वाला यह अगरिया समाज ही है। अगरिया लोग जिस देवता की पूजा करते हैं, उन्हे लोहासुर कहा जाता है। भट्ठी चालू होने के पहले इस देवता की पूजा अर्चना जरूरी है।

अगरिया समुदाय को परख थी कि किस पत्थर से मजबूत और किससे कमजोर लोहा बनता है ? यहां तक कि दिल्ली में कुतुबमीनार के पास जो कभी जंग न लगने वाला एक लौह स्तम्भ गड़ा है, वह अगरिया लोगों द्वारा बनाये गए लोह का ही है।


अगरिया लोहा बनाने के लिए मिटटी की एक धमन भट्ठी बनाते थे। फिर उसको एक पोली नली के साथ चमड़े के खलैते से जोड़ देते थे। यह खलैता खड़े खड़े पैर से चलाया जाता था। उसके पहले स्वनिर्मित धमन भट्ठी में सरई वृक्ष की सूखी लकड़ी और लोह की धाऊ भर दी जाती थी। खलैते द्वारा पहुचाई गई हवा से सरई की लकड़ी की घनीभूत हुई आग की आंच से वह पत्थर रूपी लौह की धाऊ पिघल कर लौह पिंड का रूप ले लेता था, जिसे अगरिया हथौड़े से कूट - कूट कर औजार का रूप दे देते थे।

मध्य काल में जिस तरह के युद्ध लड़े जाते थे, उनमें तलवार और भाले प्रमुख थे। युद्ध में एक-एक राजा के साथ उनके हजारों सैनिक होते थे, जिनके लिए हथियारों की पूर्ति इन्ही कारीगरों द्वारा होती थी। साथ ही खेती के औजार भी। पर अब बड़ी- बड़ी फैक्ट्रियों ने इनका काम छीन कर उन्हें सड़क पर ला खड़ा कर दिया है। आज आदिवासी समुदाय में अगर किसी को अपना अस्तित्व बनाये रखने की चिंता है तो वह अगरिया समुदाय ही है।

पर कभी के माने हुए बैज्ञानिक आज बेचारे असहाय हैं। प्रकृति का सामंजस्व तो देखिये कि जहां लौह की धाऊ थी वहीं-वहीं उसे अपने तेज आंच से गला देने वाला सरई का वृक्ष भी था।

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