दोस्तों, आज के इस कठिनाइयों से भरे समय में विशेषज्ञों द्वारा बेहतर सेहत के या फिर बीमारियों से निजात पाने के अलग अलग चिकित्सा पद्धतियों के तमाम तरीके सुझाए जा रहे हैं। इन सबसे जुदा एक तरीका और भी है अर्थात कोई भी दवा न लेना। आज भी कई ऐसे लोग मिल सकते हैं जो बिना कोई दवा लिए खुद को स्वस्थ रखे हुए हैं, अगर कुछ लेते भी हैं तो वो उनकी दिन प्रतिदिन की जीवनशैली जीने का हिस्सा रहा है।
मेरी याददाश्त में ऐसी एक शख्सियत है जिन्होंने इस लीक से हटकर तरीक़े को अपनाया हुआ था और वो थे मेरे दादा स्वर्गीय श्रीधर जी। दादा जी का खाना बहुत ही सीधा साधा सा था। जुवार की रोटी, दाल और लहसुन की चटनी। हमारी काकी पीतल के गोलाकार भड़ते में दाल पकाती फिर चूल्हे और मिट्टी के तवे पर जुवार की गर्म गर्म रोटियां सेक कर परोसती थी साथ ही लहसुन, लालमिर्च और खड़े नमक को अनुपात में मिला कर सिलबट्टे पर बांटकर चटनी भी बनाती थी। तब कोई डाइनिंग टेबल तो थी नहीं इसलिए जमीन पर ही आसन बिछाकर पाटले पर थाली परोसी जाती थी। थाली भी ऊंची किनार वाली और दाल के लिए कटोरे की जरूरत नहीं थी, बस थाली के नीचे कोयले या लकड़ी का छोटा टुकड़ा टिकाकर निचले हिस्से में दाल उड़ेल ली जाती थी और चटनी को भी दाल में घोल लिया जाता था। बस यही था दादा जी का लंच और डिनर मतलब दाल रोटी। कभी कभार बाड़े में लगी बेलदार सब्जियां जैसे लौकी, कद्दू या गिलकी बन जाती थी, जायके में बदलाव के लिए। हां बार त्योहार पर खीर, पूरी, भजिया और हलुवा आदि पकवान जरूर बनते थे।
रात को सोने के पहले दादा जी एक गिलास दूध के साथ त्रिफला चूरन की एक फंकी मार लेते थे। हरड़, बहेड़ा और आंवला बराबर बराबर मात्रा में मिलाकर इमामदस्ते में कूटने के बाद साफ कपड़े से छानकर डिबिया में भरा जाता था। यही था घर का बना त्रिफला, मैं तो इसे दादा जी के नियमित भोजन का हिस्सा ही मानता हूँ, आप चाहे तो इसे दवा कह सकते हैं।
मुझे याद नहीं दादा जी ने कभी और कोई दवा ली हो। मैंने कभी उनको बीमार भी नहीं देखा मगर सालभर हल्की खांसी जरूर चलती थी। यह खांसी की बीमारी मुझे विरासत में मिली है जो कभी ज्यादा तो कभी कम साल भर ही चलती रहती है। तमाम जांच करवाई तो मालूम हुआ कि यह एलर्जिक कफ है, जो मौसम के बदलाव के साथ कम - ज्यादा होती रहती है। दादा जी को भी शायद ऐसी ही एलर्जिक खांसी ही रही होगी क्योंकि इसके कारण उनके रोजमर्रा के कामकाज पर कभी कोई प्रभाव नहीं पड़ा। एक दिन अचानक ही दादा जी को ब्रेन स्ट्रोक हुआ, पांच - छ: दिन इलाज चला फिर 1 जनवरी 1984 को चुपचाप 90 साल की उमर पूरी कर दुनिया को अलविदा कह गये।
मौत महामारी के रूप में नाम बदल बदल कर आदमी के दरवाजे पर दस्तक देती रही है और बहुत बड़ी आबादी को काल का ग्रास बनाती रही है। इसे हम प्लेग, हैजा, चेचक, स्पेनिश फ्लू आदि नामों से जानते आए हैं। अब एक और घातक नाम जुड़ चुका है...कोविड 19...जिससे आज सारी दुनिया परेशान है। अगर स्पेनिश फ्लू की बात की जाए तो उस समय दादा जी की उमर लगभग 20 साल रही होगी, उन्होंने उस दौर में भी इस महामारी से और अन्य बीमारियों से खुद को सुरक्षित रख कर सेहत से भरी पूरी ज़िन्दगी जी थी।
अगर आप भी अपने पारिवारिक वृक्ष की जड़ों को टटोलेंगे तो आपके कई बुजुर्गों ने भी मेरे दादा जी की तरह ही अपनी पूरी ज़िन्दगानी जी होगी, वह भी बिना किसी दवा के। शायद तब दवा उपलब्ध ही नहीं रही होगी और अगर रही भी होगी तो आसान पहुंच से बहुत दूर। हां यह बात जरूर है कि तब आबोहवा में प्रदूषण का जहर नहीं घुला था।
आज सोशल मीडिया महामारी से निजात पाने के अलग अलग तरीकों से पटा पड़ा है। चिकित्सा पद्धतियों में कमियां निकालने की होड़ लगी है और आम आदमी इस भूलभूलैया में घुसने के बाद भटकने पर मजबूर है। कठिनाइयों और मायूसियत के दौर में जरूरत है अफवाहों से दूर रहने की और प्राधिकृत/योग्यताप्राप्त चिकित्सकों/विशेषज्ञों के परामर्श अनुसार पूर्व सावधानियां बरतने, उपचार करवाने और टीकाकरण करवाने की।
फिर भी इन सबसे परे मेरे दादा जी के जीवन वृत्तांत के छोटे से अंश के माध्यम से मैं सिर्फ यही कहना चाहूँगा कि "एक तरीका यह भी था सेहतमंद ज़िन्दगी का।"
( इस आलेख के लेखक भारतीय वन सेवा के अधिकारी अनिल नागर जी हैं। पन्ना टाइगर रिज़र्व में आप उप संचालक के पद पर कार्यरत रहे हैं। प्रकृति,पर्यावरण और वन्य जीवों पर भी आप कुछ न कुछ लिखते रहते हैं जो बेहद अर्थपूर्ण और प्रेरणादायी होता है। यह आलेख उनके फेसबुक वॉल से साभार लिया गया है। )
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