फिल्म शेरनी में एक ईमानदार वन अधिकारी की भूमिका निभाते हुए विद्या बालन। |
।। अरुण सिंह ।।
जब हम अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति हेतु जंगल काटते हैं और बड़े पैमाने पर खनिज संपदा का दोहन कर पर्यावरण को तहस-नहस करते हैं, तो इसे नाम देते हैं विकास। इस कथित विकास से जब वन्य प्राणियों का जीवन संकट में पड़ता है और वह अपने को बचाने के लिए हमलावर होते हैं, तो इसे क्रूरता कहकर उन्हें ही खत्म कर दिया जाता है। बिना यह जाने और समझे कि जंगल और वन्यजीवों का वजूद हमारे खुद के अस्तित्व को कायम रखने के लिए बेहद जरूरी है।
फिल्म शेरनी में इन्हीं सब मुद्दों को बड़े ही प्रभावी ढंग से उठाया गया है। आज ही मैंने यह फिल्म देखी, जो रुचिकर लगी। आपने यदि नहीं देखी तो जरूर देखें। यह फिल्म विकास व पर्यावरण से जुड़े मुद्दों की अहमियत पर जहां ध्यान आकृष्ट करती है, वहीं सियासत के पाखंड व रीढ़ विहीन, लचर और सुविधा भोगी अफसरशाही की असलियत को भी उजागर करती है। नेता आम जनता को भ्रमित कर किस तरह से जंगल व वन्य जीवों के प्रति उनमें वैर भाव पैदा करते हैं, इसको बड़े ही प्रभावी ढंग से फिल्म में प्रस्तुतीकरण हुआ है।
फिल्म में एक ईमानदार महिला वन अधिकारी के रूप में विद्या बालन ने अच्छी भूमिका निभाई है। विषम व विपरीत परिस्थितियों के बीच वह दो नन्हे शावकों की मां (शेरनी) को सियासत और अफसरशाही के नापाक गठजोड़ से बचाने का हर संभव प्रयास करती है, लेकिन बचा नहीं पाती। उसे आदमखोर बताकर मरवा दिया जाता है।
इस फिल्म को देखना मुझे इसलिए भी अच्छा लगा क्योंकि इसे मध्य प्रदेश के जंगलों में ही फिल्माया गया है। फिल्म को देखते समय पन्ना के जंगलों का एहसास होता है। फिल्म की कहानी भी इतनी चिर परिचित लगती है, मानो इसे पन्ना टाइगर रिजर्व को केंद्र में रखकर ही बनाया गया हो। हाईवे, खदान, जंगल की कटाई, इंसान व वन्य प्राणियों के बीच द्वन्द के हालात ! यही सब मुद्दे तो पन्ना के हैं, जिन्हें शेरनी फिल्म में प्रमुखता से उठाया गया है। इस फिल्म में एक कार्यक्रम में सीनियर अफसर कहता है कि "क्या विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन जरूरी है ? विकास के साथ जाओ तो पर्यावरण को बचा नहीं सकते और अगर पर्यावरण को बचाओ तो विकास बेचारा उदास हो जाता है।" अब राजनीति के सौदागर भला विकास को कैसे उदास कर सकते हैं ? जाहिर है कि बलि पर्यावरण की ही चढ़ेगी।
फिल्म में एक संवाद यह भी है जंगल कितना भी बड़ा हो शेरनी अपना रास्ता खोज ही लेती है। लेकिन शेरनी तब क्या करेगी जब उसके रास्ते में हाईवे, हीरे की खदान और विशालकाय बांध आ जाएंगे ? इन बाधाओं को पार कर कैसे अपने लिए एक सुरक्षित ठिकाना ढूंढ पाएगी ? मालुम हो कि बक्स्वाहा हीरा खदान के कारण जंगल कटने से पन्ना टाइगर रिज़र्व से लगा एक शानदार गलियारा ( कॉरिडोर ) नष्ट हो जायेगा, जिससे वन्य प्राणियों का आवागमन बाधित होगा।
यहां पन्ना के अतीत का जिक्र करना जरूरी है कि आखिर क्यों पन्ना के जंगलों से बाघों की दहाड़ लुप्त हो गई थी ? इसकी वजह थी वर्ष 2007 में एक शेरनी की मौत ! दरअसल पन्ना के जंगलों में उस समय तक सिर्फ एक ही शेरनी (बाघिन) बची थी, उसे भी जहर देकर मार दिया गया। फिर क्या हुआ यह सबको पता है। लेकिन शायद गलतियों से सीखने की हमारी फितरत नहीं है। हम फिर उसी रास्ते पर चल पड़े हैं, जिस पर चलने से कथित विकास मुस्कुराता है और पर्यावरण की बलि चढ़ती है।
केन-बेतवा लिंक परियोजना तथा बक्सवाहा हीरा खदान के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता व समर्थन यही संकेत करता है। कोरोना महामारी के इस दौर में पर्यावरण की अहमियत को यदि हम न समझ पाये तो फिर मनुष्य जाति को भगवान भी नहीं बचा पायेगा। आर्थिक उन्नति और विकास हमारे जीवन को खुशहाल बनाने के लिए होना चाहिए न कि उसे नई मुसीबत में डालने और नष्ट करने के लिए ? जरा सोंचे, जब जीवन ही नहीं होगा तो फिर यह कथित विकास किसके लिए ?
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बहुत खूब...अच्छे और गहरे लेखन के लिए आपको खूब बधाई...।
ReplyDeletedhanyavad sandeep ji
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