खेत में लहलहाती काकुन की बालियां। |
जी हां, यह लम्बी लम्बी लटक रही बालियां काकुन की हैं। जिसे कहीं-कहीं कांग भी कहा जाता है। इसकी गिनती माइनर मिलट् यानी कि मोटे अनाजों में है। डेढ़ माह में पक कर तैयार हो जाने वाला यह बेहद पौष्टिक अनाज आपदा काल में जीवनदाई साबित होता था। लेकिन अब इस देसी अनाज काकुन की खेती करना हम भूल गए हैं। देसी धान की दो सैकड़ा से भी अधिक किस्मों का संरक्षण करने वाले पद्मश्री बाबूलाल दहिया जी ने काकुन की खूबियों और महत्ता के बारे में रोचक जानकारी साझा की है।
वे बताते हैं कि वैसे बाल्यावस्था में काकुन को जब मैने देखा तक नहीं था, तब से इसे जानता हूं। और वह इसलिए कि मेरी माँ किसी गंगातीर की चिड़िया की एक बड़ी ही मार्मिक कहानी सुनाया करती थी, जिसे उसके खेत की काकुन खाने पर किसी भाट ने पकड़ लिया था। और अपने घर लिए जा रहा था तो रास्ते में जो भी राहगीर निकलते वह उससे छुड़वाने की प्रार्थना करती।
किन्तु चिड़िया को अपनी चिंता नही थी, बल्कि उसे चिंता अपने छोटे-छोटे नोनिहाल बच्चों की थी। जो उसके चुग्गा न खिलाने पर भूखों मर जायेंगे। उस पर एक गीत था कि -
ओ अमुक भाई!
मैं भाट के खायव काकुन ,
मोहि भाट धरे लइजाय।
गंगा तीर बसेरा ,
मोर रोय मरे गहदेला।
रंग चु चु।
पता नही शायद फिर कोई राजा वहीं से निकले और जब उसने उनसे भी प्रार्थना की, तो राजा ने चिड़िया को छुड़वा दिया था। जो ठीक से याद नहीं है। पर तब से काकुन अपनी परिचित सी बन गई थी।1967 में जब देश में घनधोर अकाल पड़ा और वर्षा आधारित सारी खेती सूख गई तो 1968 में तुरंत फसल उगाने के उद्देश्य से हमने अपने उचहन खेत में इसे बोया था। तो फिर डेढ़ माह में ही पक जाने वाली इस काकुन का भात तब तक खाते रहे थे, जब तक धान की नई फसल नहीं आ गई थी ?
इन मोटे अनाजों की एक विशेषता यह भी थी कि यदि इनको कम मात्रा में भी खा लिया जाय तब भी जल्दी से भूख नहीं लगती थी। इसलिये अकाल दुर्भिक्ष के समय हमारे बाप पुरखों को जीवित बनाये रखने में इनका बहुत बड़ा श्रेय है। इसका 100 ग्राम चावल भी तभी खाया जा सकता है, जब दो गुना सब्जी, दाल य दूध, मठ्ठा कुछ न कुछ अवश्य हो ?
इस हिसाब से भी भोजन को यह काफी पौष्टिक बना देती थी।
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