Friday, March 25, 2022

मध्यप्रदेश के जंगलों में यहाँ रहते थे आदिमानव, चट्टानों और गुफाओं में अंकित हैं चिन्ह

  • मध्यप्रदेश में पन्ना और छतरपुर जिले के जंगलों में हजारों साल पूर्व आदिमानव रहते थे। यहाँ की वनाच्छादित पहाड़ियों की चट्टानों और गुफाओं में आखेट के दुर्लभ शैल चित्र आज भी मौजूद हैं, जो आदिमानवों द्वारा बनाये गए थे। इन अति प्राचीन शैल चित्रों का संरक्षण जरूरी है।

पन्ना टाइगर रिजर्व के कोर क्षेत्र में जरधोवा गांव के पास पहाड़ी में बने प्राचीन शैल चित्र। (फोटो - अरुण सिंह)

।। अरुण सिंह ।।

पन्ना (मध्यप्रदेश)। प्राचीन धरोहरों से समृद्ध मध्यप्रदेश के पन्ना और छतरपुर जिले के जंगलों और पहाड़ों की कंदराओं में हजारों वर्ष पूर्व आदिमानव निवास करते रहे हैं। यहां के पहाड़ों व घने जंगलों के बीच स्थित गुफाओं में मिले आखेट के दुर्लभ चित्रों से यह साबित होता है कि हजारों साल पहले भी यहां पर मानव आबादी थी। जिनके द्वारा चट्टानों और कंदराओं में प्राकृतिक रंगों से आखेट के ऐसे चित्र बनाये गये हैं। आदिमानवों द्वारा बनाये गए शैलचित्रों और शैलाश्रयों के लिए प्रसिद्ध भीमबैठका (मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में स्थित) की तरह पन्ना टाइगर रिजर्व के जंगल में भी अनेकों जगह दुर्गम पहाड़ियों और गुफाओं में शैल चित्र (रॉक पेंटिंग) बनी हुई हैं। ये कितनी प्राचीन हैं इसका पता लगाने के लिए विशेषज्ञों की मदद ली जानी चाहिए। ताकि यहां के दुर्लभ प्राचीन शैल चित्रों का संरक्षण हो सके। मालूम हो कि आदिमानवों द्वारा बनाये गए शैलचित्रों के कारण भीमबैठका क्षेत्र को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, भोपाल मंडल ने अगस्त 1990 में राष्ट्रीय महत्त्व का स्थल घोषित किया गया है।

जिला मुख्यालय पन्ना से लगभग 18 किमी. दूर ग्राम जरधोवा के निकट पन्ना नेशनल पार्क के जंगल में स्थित गुफाओं व ऊँचे पहाड़ों की चट्टानों पर प्राचीन भित्त चित्र मिले हैं। हजारों वर्ष पूर्व आदिमानवों द्वारा पहाड़ों व गुफाओं में ये चित्र बनाये गये हैं, जो आज भी दृष्टिगोचर हो रहे हैं। राज्य वन्य प्राणी बोर्ड के पूर्व सदस्य एवं पर्यटन व्यवसाय से जुड़े श्यामेन्द्र सिंह बिन्नी राजा ने बताया कि पन्ना नेशनल पार्क के घने जंगलों में दर्जनों की संख्या में ऐसी गुफायें मौजूद हैं जहाँ हजारों वर्ष पूर्व आदिमानव निवास करते रहे हैं। उस समय चूंकि खेती शुरू नहीं हुई थी, इसलिए आदिमानव पूरी तरह से जंगल व वन्यजीवों पर ही आश्रित रहते थे। वन्यजीवों का शिकार करके वे अपनी भूख मिटाते थे। यहाँ की गुफाओं व पहाड़ों की शेल्टर वाली चट्टानों पर उस समय के आदिमानवों की जीवनचर्या का बहुत ही सजीव चित्रण किया गया है। भित्त चित्रों में वन्यजीवों के साथ-साथ शिकार करने के दृश्य भी दिखाये गये हैं।

जरधोवा गांव की पहाड़ी का वह शेल्टर जहां चट्टानों पर शैल चित्र आदिमानवों ने बनाए हैं। (फोटो - अरुण सिंह)


वन्य जीवों का शिकार करने के लिए आदिमानवों द्वारा तीर कमान का उपयोग किया गया है। चित्रों से यह पूरी तरह स्पष्ट नहीं होता कि तीर की नोक लोहा  की है या फिर नुकीले पत्थर अथवा हड्डी से उसे तैयार किया गया है। यदि तीर की नोक लोहा से निर्मित नहीं है तो शैल चित्र पाषाण काल के हो सकते हैं।पन्ना नेशनल पार्क के अलावा भी जिले के अन्य वन क्षेत्रों में भी इस तरह के शैल चित्र पाये गए हैं। जानकारों के मुताबिक बराछ की पहाड़ी, बृहस्पति कुण्ड की गुफाओं व सारंग की पहाड़ी में भी कई स्थानों पर आदिमानवों द्वारा बनाई गई रॉक पेंटिंग मौजूद हैं। लेकिन दुर्भाग्य से अभी तक शासन व प्रशासन का ध्यान इन प्राचीन धरोहरों के संरक्षण की ओर नहीं गया। ऐसी स्थिति में उन स्थानों पर जहाँ लोगों की आवाजाही अधिक है तथा सहजता से जहाँ लोग पहुँच जाते हैं वहाँ की रॉक पेंटिंग नष्ट हो रही हैं। इन रॉक पेंटिंग (शैल चित्र) की महत्ता से अनजान लोग चट्टानों की दीवालों पर बनी इन पेंटिंग्स के आस-पास कोयला या पत्थर से खुद भी चित्र बनाकर अपना नाम लिख देते हैं, जिससे अमूल्य धरोहर नष्ट हो रही है।

आदिमानवों द्वारा बनाई गई इन प्राचीन शैल चित्रों को देखने हमने जरधोवा, बराछ की पहाड़ी, बृहस्पति कुण्ड का भ्रमण किया। जरधोवा गांव के निकट दुर्गम पहाड़ी पर एक विशालकाय चट्टान का शेल्टर है, जिसके नीचे दर्जनों लोग बैठकर विश्राम कर सकते हैं। पहाड़ी के ऊपर अत्यधिक ऊँचाई पर यह स्थान होने के कारण यहाँ से मीलों दूर तक जंगल का नजारा दिखाई देता है। इस शेल्टर की बनावट व स्थिति को देख ऐसा लगता है कि यहाँ पर आदिमानव विश्राम करते रहे होंगे और शिकार करने के लिए जंगल के किस हिस्से में जानवर अधिक संख्या में मौजूद हैं इस बात का भी जायजा लेते रहे होंगे । इस शेल्टर की खूबी यह है कि बारिश होने पर न तो यहाँ  बारिश का पानी पहुंच सकता है और न ही धूप,यहाँ पर गर्मी के दिनों में भी शीतलता का अहसास होता है। इस शेल्टर की भित्त पर शिकार करने के अनेकों दृश्य बने हुये हैं।

पन्ना टाइगर रिजर्व का जंगल जहां कभी आदिमानव रहते रहे हैं। (फोटो - अरुण सिंह)


जरधोवा गांव के मेघन सिंह (60 वर्ष) पूर्व जनपद सदस्य बताते हैं कि सैकड़ों वर्ष पूर्व इस जंगल में गोंड़ राजाओं के समय काछा नाम का गांव आबाद था जो गोंड़ शासन खत्म होने के बाद उजड़ गया। पहाड़ी पर स्थित शेल्टर जहाँ  भित्त चित्र मौजूद हैं उस स्थान को घुटइयां के नाम से जाना जाता है। स्थान अत्यधिक दुर्गम होने के कारण तथा पुरानी मान्यताओं के चलते गांव के लोग यहाँ नहीं जाते। ग्रामीणों की मान्यता है कि वहाँ चुडैलों का वास है,  इसलिए वहाँ जाने से अनर्थ हो सकता है ।

पेन्टिंग को खून की पुतरिया कहते हैं ग्रामीण

बियावान जंगल में स्थित गुफाओं व पहाड़  की चट्टानों पर लाल रंग से अंकित शिकार के दृश्यों को गांव के आदिवासी खून की पुतरिया कहते हैं। प्रेमबाई गोंड (65 वर्ष) बताती हैं कि इन स्थानों पर वास करने वाली चुडैलें नवजात शिशुओं को मारकर उनके रक्त से ये चित्र बनाती हैं। इसी मान्यता के चलते गांव के लोग भित्त चित्र वाले स्थानों पर जाना तो दूर उस तरफ रुख भी नहीं करते। गांव के बड़े बुजुर्ग पूरे भरोसे के साथ यह बताते हैं कि आदिमानवों द्वारा नहीं  बल्कि चुडैलों द्वारा ही  गुफाओं में जगह-जगह खून की पुतरिया बनाई गई हैं, जो कोई भी वहाँ जायेगा वह चुडैलों के कोप का शिकार हो सकता है। अनर्थ होने की आशंका से गांव का कोई भी व्यक्ति इन खुन की पुतरियों के पास नहीं फटकता। इसी पुरानी मान्यता के चलते जरधोवा गांव की दुर्गम पहाड़ी के शेल्टर में बने शैल चित्र काफी हद तक आज भी सुरक्षित हैं।

वन और पर्यावरण पर विशेष रूचि रखने वाले श्यामेन्द्र सिंह बिन्नी राजा का कहना है कि जरधोवा के जंगल की रॉक पेन्टिंग कई हजार वर्ष पूर्व पुरानी है। जो दुर्लभ और पुरा महत्व की है । आपने बताया कि हजारों वर्ष पूर्व इस पूरे इलाके में आदिमानव रहते रहे हैं, इसके चिह्न पेन्टिंग के रूप में आज भी मौजूद हैं। यहाँ  के जंगलों में यदा-कदा आदिमानवों द्वारा शिकार के लिए उपयोग में लाये जाने वाले पत्थर के नुकीले हïथियार भी मिल जाते हैं। हजारों साल गुजर जाने के बाद भी भित्त चित्र नष्ट नहीं हुए, इसकी वजह का खुलासा करते हुए आपने बताया कि ये वनस्पति रंग से बने हैं। बनस्पतियों और पेड़ पौधों के रंग से आदिमानवों ने ये शिकार के दृश्य अंकित किये हैं।

दुर्लभ शैल चित्रों का संरक्षण जरूरी


अकोला बफर क्षेत्र में बराछ गांव के पास की पहाड़ी में बने शैल चित्रों के बारे में जानकारी हासिल करते स्कूली बच्चे। (फोटो - अरुण सिंह)

पर्यावरण संरक्षण के हिमायती व वन्य जीव प्रेमी हनुमंत सिंह का कहना है कि पन्ना के जंगलों में मिले शैल चित्र हजारों वर्ष पुराने हैं। इन शैल चित्रों का हर हाल में संरक्षण होना चाहिए। क्योंकि इन दुर्लभ धरोहरों से मानव विकास के इतिहास का ज्ञान होता है। आने वाले समय में इन शैल चित्रों का पर्यटन के विकास में महत्वपूर्ण योगदान रहेगा। हनुमंत सिंह कहते हैं कि वन व पर्यावरण का संरक्षण करने के साथ-साथ यदि इन दुर्लभ शैल चित्रों को भी संरक्षित किया जाय तो इन प्राचीन धरोहरों से समृद्ध पन्ना के जंगल पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र बन सकते हैं।

बिजावर व किशनगढ़ क्षेत्र में भी मिले शैल चित्र


छतरपुर जिले के किशनगढ़ क्षेत्र में मिले शैल चित्र दिखाते हुए समाजसेवी। (फोटो- अमित भटनागर)

सामाजिक कार्यकर्ता अमित भटनागर ने बताया कि महाराजा कॉलेज के प्रोफेसर पुरातत्वविद एस. के. छारी के 2016 के शोध पत्र में छतरपुर जिले में शैलचित्रों की बात कही गई है, जिसके बाद कई स्थानों पर शैलचित्र पाए गए। किशनगढ़ क्षेत्र में शैल चित्रों की संभावनाओं को देखते हुए अमित भटनागर व उनके साथियों ने इस पूरे इलाके में शैल चित्रों को खोजने की मुहिम चलाई। अमित का कहना है कि कई महीनों की मेहनत के बाद किशनगढ़, ककरा नरौली,पटोरी, आमा पहाडी, कूपी सहित क्षेत्र में कई स्थानों पर शैलचित्र पाए गए हैं। सामाजिक कार्यकर्ता अमित भटनागर का कहना है कि बिजावर के जंगलों में मध्य पाषाण काल के शैल चित्रों का होना सिर्फ बुंदेलखंड ही नहीं पूरे भारत के लिए गरिमा की बात है। उनका कहना है कि हमारे लिए यह दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि हम इतनी अनमोल अपनी धरोहर की देखभाल भी नहीं कर पा रहे हैं। अमित ने बताया कि पूरे क्षेत्र में आदिम युग के हथियार और उनके द्वारा उपयोग की जाने वाली वस्तुएं भी होंगी। सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा इन मध्य पाषाण कालीन शैल चित्रों के संरक्षण व इन्हें विश्व स्मारक घोषित करने की मांग भी उठाई है।

00000

No comments:

Post a Comment