मानव स्वभाव सौन्दर्योपासक है, भाषा को सुन्दर बनाने के लिए अलंकार का इस्तेमाल होता है, गाहेबगाहे इसमें परिंदों का भी जिक्र आता है। मैथिली शरण गुप्त द्वारा रचित "साकेत" की ये पंक्तियाँ याद आती हैं जिसमें उन्होंने उर्मिला (लक्षमण की पत्नी) के सौन्दर्य का वर्णन किया है:
नाक का मोती अधर की कान्ति से,
बीज दाड़िम का समझकर भ्रान्ति से।
देखकर सहसा हुआ शुक मौन है।
सोचता है अन्य शुक यह कौन है?
उपरोक्त पंक्तियों की व्याख्या जो मैं समझ पाया हूँ, यह है कि उर्मिला की नाक की नथ में जड़ित मोती पर जब ओठों की लाल आभा पड़ती है; तब वह अनार (दाड़िम) के बीज की तरह लगता है, जिससे तोते (शुक) को भ्रम हो जाता कि चोंच में अनार का दाना लिए कोई और तोता बैठा है!! पाठशालाओं में इसे भ्रान्तिमान अलंकार के उदहारण के रूप में पढ़ाया जाता रहा है।
@ अनिल नागर सेवानिवृत्त वन अधिकारी
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