Saturday, April 30, 2022

गाँव का एक शिल्प तीतर बटेर पालने की खधरी

 

 बाँस की खपच्चियों से निर्मित पिंजरा (खधरी)  फोटो - रवि कुमार कोल 

।। बाबूलाल दाहिया ।।                                                                                                                                           

हमारा गाँव का कृषि आश्रित समाज बहुत बड़ा समाज था, जिसमें किसान थे और 7--8 प्रकार के लोक विद्याधर शिल्पी थे। साथ ही उसी अनुपात में खेतिहर श्रमिक भी जिनके श्रम शीकरों से यह गाँव आत्म निर्भर इकाई हुआ करते थे। ऐसे आत्म निर्भर ग्रामों को लोग कहते कि "अमुक गांव में तो सतीहों जाति है"? सतीहों जाति का आशय यहां इन्ही 7 प्रमुख उद्यमी जातियों से ही था, जिनके हाथ में विकास की धुरी हुआ करती थी।

जब गांव आत्म निर्भर थे तो वहाँ रहने वालों के अपने तरह - तरह के शान शौक भी हुआ करते थे। इसलिए उनके मिजाज को भाप हमारे लोग विद्याधर शिल्पी अपने दो अदद हाथ और एक अदद विलक्षण बुद्धि से उनके अनुरूप तरह - तरह की  नई - नई वस्तुए भी बनाने में कुशल थे। यही कारण है कि उनकी निर्मित वस्तुओ के डिजाइनों की संख्या आज 250 के पार है। पर दु:खद बात यह है कि अब अधिकांश वस्तुए विलुप्तता के गहरे गर्त में समाती जा रही हैं, जिन्हें बचाना और संग्रहीत करना हमारा कर्तब्य है।

उन्ही वस्तुओ में से एक  बाँस की खपच्चियों का बना यह तीतर बटेर पालने का पिंजरा भी था। जो कुछ श्रमिकों के शौक में शामिल था, जिसे वे खधरी कहते थे। अगर वे कहीं काम में जाते तो साथ में तीतर बटेर की यह खधरी भी रहती। क्योंकि तीतर लड़ाना और पालना उनका अपना शौक था। अस्तु बाँस शिल्पी लगभग 20 प्रकार के अपने बर्तन या बस्तुएं जहाँ अन्य लोगों के लिए बनाते तो एक बाँस के पिजरे की तरकीब उनके लिए भी खोज लिए थे।

बांस की खपच्चियों और तार से बनने वाली यह खधरी दो तरह की बनती थी। एक प्रकोष्ट वाली और दो प्रकोष्ट वाली। क्योंकि स्वभाव से लड़ाकू होने के कारण दो तीतर बटेर एक साथ नहीं रह सकते थे। लेकिन अब यह खधरी भी पूरी तरह ही चलन से बाहर है।

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