- पन्ना के जंगल में प्राकृतिक रूप से प्रचुरता में पाये जाते हैं चिरौंजी के वृक्ष
- प्रदेश के पन्ना, छतरपुर व छिन्दवाड़ा जिले में होता है सर्वाधिक उत्पादन
पन्ना के जंगल में अचार फल से लदा चिरौंजी का पेड़। |
पन्ना। मध्यप्रदेश के बुन्देलखण्ड अंचल में चिरौंजी के पेड़ बहुतायत से पाये जाते हैं। लेकिन अवैध कटाई व आग लगने से यह बेशकीमती वृक्ष जंगल से नदारत होता जा रहा है। यहां के जंगलों में कुछ वर्षों पूर्व तक चिरौंजी के वृक्ष प्राकृतिक रूप से प्रचुरता में पाये जाते रहे हैं लेकिन अब उनकी संख्या तेजी से घट रही है। चिरौंजी के वृक्षों की घटती संख्या की एक बड़ी वजह विनाशकारी विदोहन भी है। यही कारण है कि औषधीय महत्व वाले चिरौंजी के वृक्ष जो जंगल में हर तरफ नजर आते थे अब कम दिखते हैं। वृक्षों के कम होने से चिरौंजी का उत्पादन भी उसी अनुपात में घट रहा है। जंगल में आबादी के बढ़ते दबाव व वनों की हो रही अधाधुंध कटाई से भी इस बहुमूल्य वृक्ष की उपलब्धता कम हुई है।
उल्लेखनीय है कि बुन्देलखण्ड क्षेत्र के पन्ना व छतरपुर जिले के जंगलों में चिरौंजी के वृक्ष बड़ी तादाद में प्रचुरता से मिलते हैं। लगभग 20 मीटर ऊंचाई तक बढऩे वाले चिरौंजी के वृक्ष को स्थानीय लोग अचार का वृक्ष भी कहते हैं, इसका लेटिन नाम बुकेनेनिया लेटिफोलिया है। चिरौंजी के पत्ते छोटे - छोटे नोंकदार और खुरदरे होते हैं। इसके फल करौंदे के समान नीले रंग के होते हैं, इन फलों को तोडऩे पर उनके भीतर जो मगज निकलती है, उसे चिरौंजी कहते हैं। चिरौंजी का मेवों में जहां महत्वपूर्ण स्थान है वहीं यह पित्त और वात रोगों, कुष्ठ रोग, वीर्य दुर्बलता, श्वांस रोग, उदर रोग, चर्म रोग तथा मूत्र विकार हेतु उत्तम औषधि है।
चिरौंजी को तेल के साथ पीसकर मालिश करने से मकड़ी का विष दूर होता है तथा इसे खाने से कलेजे, फेफड़े और मस्तक की शर्दी मिटती है। चिरौंजी को गुलाब जल में पीसकर मालिश करने से चेहरे पर होने वाली फुंसियां और दूसरी खुजली मिट जाती है। वैद्यों का यह कहना है कि एक छटांक भर चिरौंजी खा जाने से शरीर में उछलती हुई पित्ती शांत हो जाती है। अगर पित्ती किसी दवा से न जाय तो इससे जरूर चली जाती है। चिरौंजी की जड़ कसैली, कफ पित्त नाशक और रूधिर विकार को दूर करने वाली होती है।
वन विभाग से मिली जानकारी के अनुसार प्रदेश के पन्ना, छतरपुर व छिन्दवाड़ा जिले में चिरौंजी फल का सर्वाधिक उत्पादन होता है। पन्ना जिले के जंगलों से लगभग 8 सौ कुन्टल चिरौंजी फल का संग्रहण वनवासियों व स्थानीय लोगों द्वारा किया जाता है। औषधीय महत्व वाले इस मेवे का उत्पादन प्रदेश के जिन अन्य जिलों में होता है, उनमें बालाघाट, बैतूल, भोपाल, बुरहानपुर, दमोह, गुना, जबलपुर, नरसिंहपुर, रायसेन, सागर, सीहोर, सिवनी, शहडोल व सीधी हैं। लेकिन प्रदेश में चिरौंजी के कुल उत्पादन का लगभग 60 फीसदी हिस्सा बुन्देलखण्ड क्षेत्र के पन्ना और छतरपुर जिले में उत्पादित होता है।
कल्दा पठार के जंगल में चिरौंजी के सर्वाधिक वृक्ष
औषधीय वनस्पतियों के लिए अनुकूल पन्ना जिले के कल्दा पठार में चिरौंजी के सर्वाधिक वृक्ष पाये जाते हैं। कल्दा के अलावा पन्ना नेशनल पार्क के रिजर्व वन क्षेत्र सहित उत्तर व दक्षिण वन मण्डल के जंगल में चिरौंजी के वृक्ष प्राकृतिक रूप से प्रचुरता में मिलते हैं। इस फल की उपयोगिता व कीमत को देखते हुए ग्रामीण फलों को परिपक्व होने से पहले ही तोड़ लेते हैं। जिससे अच्छी गुणवत्ता वाली चिरौंजी प्राप्त नहीं हो पाती। वन
अधिकारियों का कहना है कि चिरौंजी (अचार) के पके हुए फलों को ही तोड़कर संग्रहित किया जाना चाहिए ताकि बेहतर गुणवत्ता वाली चिरौंजी प्राप्त हो सके। जंगल में लगभग 10 प्रतिशत फलों को बीजों द्वारा प्राकृतिक प्रवर्धन हेतु छोड़ दिया जाना चाहिए, ताकि जंगल में चिरौंजी के वृक्षों का पुन: उत्पादन हो सके।
चिरौंजी सुधार सकती है वनवासियों की माली हालत
वन सम्पदा से समृद्ध पन्ना जिले में वनोपज के संग्रहण की उचित प्रक्रिया न अपनाये जाने के चलते भारी नुकसान होता है। पकने से पहले अचार व आंवला जैसे वनोंपज को तोडने की होड़ से उत्पादन के साथ-साथ गुणवत्ता भी प्रभावित होती है। फलस्वरूप वनोंपज की उचित कीमत नहीं मिल पाती। जिले में चिरौंजी संग्रह एवं प्रोसेसिग के क्षेत्र में स्वरोजगार व रोजगार की काफी संभावना है। अगर योजनाबद्ध तरीके से काम किया जाए, तो इससे हजारों लोगों को काम मिल सकता है, साथ ही अर्थोपार्जन के माध्यम से उनकी आमदनी भी बढ़ाई जा सकती है। चिरौंजी के बीजों में वनवासियों की आर्थिक विपन्नता दूर करने की क्षमता है।
लेकिन मई के महीने में ही कच्चे अचार की तुड़ाई को लेकर लोगों में होड़ सी मच जाती है। सुबह से बूढ़े, बच्चे, महिलायें और जवान हर कोई जंगल जाकर ज्यादा से ज्यादा अचार की तुड़ाई कर उसका संग्रहण करने में जुट जाते हैं। आंख मूंदकर कच्चे अचार को तोडने की वृत्ति का मुख्य कारण यह है कि यदि अचार के पकने का इंतजार किया तो कोई दूसरा उसे तोड़ ले जायेगा। अचार के संग्रहण में एक - दूसरे से आगे निकलने की इसी होड़ के कारण हाल के वर्षों में अचार का अवैज्ञानिक विदोहन बढ़ा है। परिणामस्वरूप कच्चा अचार तोड़कर वनोपज संग्राहक अपना ही आर्थिक नुकसान कर रहे हैं।
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