- पहले हमारे भोजन में 10-12 प्रकार के अनाज शामिल थे, अब गायब
- इन मोटे अनाजों की खूबियां बता रहे हैं पद्मश्री बाबूलाल जी दाहिया
मित्रो ! पहले हमारे भोजन में दश- बारह प्रकार के अनाज शामिल थे और वह इसलिए कि हम खेतो में उस अनाज का बीज बोते थे, जो हमारा खेत मांगता था। क्योकि हमारी समूची खेती ही वर्षा आधारित हुआ करती थी, जिसमे औसतन 4 वर्ष में एक वर्ष सूखे का होता था। पर आज सिंचाई के साधनों के कारण वह अनाज उगाते हैं, जो बाजार मांगता है।
अब सपोज करिए कि बाजार ने अगर सोयाबीन की मांग कर दी तो किसान अपने उन बड़े- बड़े बांधों तक को फोड़ कर सोयाबीन बो देता है, जो कभी तालाब की तरह कार्तिक तक भरे रहते और बाद में या तो उनमे गेहूं चना बोया जाता या अगर सूखे का साल हुआ तो समूचे बांध में कोदो बो दिया जाता था।
पहले अनाज का ऐसा विभाजन नही था, जैसा मोटे अनाज आदि में आज है। विभाजन था तो सिर्फ यह कि कुछ खाने में कोमल थे जिनमे दाल सब्जी की मात्रा कम लगती थी, उन्हें गेहू, चावल कहा जाता था। और कुछ ज्यादा खुरदरे थे, जिन्हें दो हिस्सा दाल सब्जी या दूध मठ्ठा के बिना हलक के नीचे नहीं उतारा जा सकता था। ऐसे अनाजों को वे कोदो, कुटकी, सांवा ,काकुन, ज्वार, बाजरा के नाम से जानते थे।
वर्षा आधारित खेती में सूखा के बाद किसान को तुरन्त राहत देने वाले अनाज की आवश्यकता महसूस होती थी। ऐसी स्थिति में डेढ़ माह में पकने वाले कुटकी, सांवा और काकुन महत्वपूर्ण अनाज थे। शायद इसीलिए इन्हें संस्कृत के विद्वानों द्वारा लघु धान्न कहा गया होगा। पर जब वह उन्हें खेत मे उगाते तो खाते भी। अस्तु उस समय इन अनाजों को गरीबों का भोजन ही कहा जाता था।
इनके गुण धर्मो को नई पीढ़ी जाने अस्तु हमारी मौखिक परम्परा के अपढ़ किसान जो अक्सर पढ़ने वालों को तिरस्कृत करते हुए कहा करते थे कि -
जउन तोहरे पोथी म , व हमारे मुँहे मा
यानी कि जो चीज तुम्हारे पुस्तकों में है वह मौखिक परम्परा में हमारे मुँह में है। अस्तु वे अपने उस अनुभव जनित ज्ञान को सूत्रबध्य भी कर देते थे। यथा -
तीन पाख दो पानी। पक आईं कुटकी रानी।।
या
सांवा जेठा अन्न कहावय, सब अनाज से आगे आबय ।
परन्तु कोदो का अपना अलग ही मिजाज था। क्योंकि वह पकने में तो ३ से ४ माह लेता था । फिर भी सूखा सहने की अद्भुत क्षमता कि चाह बड़े- बड़े बांध को फोड़ कर बो दीजिए या ऊंचे खेतों में लेकिन हर जगह पक कर तैयार। और फिर अस्सी वर्ष तक खराब न हो शायद इसीलिए उसे अनाजों का राना (राजा) भी कहा जाता था कि-
सगमन सरई दहिमन राना, आसी बारिश ना होंय पुराना ।
यही कारण हैं कि इन दो हिस्सा दाल- सब्जी या दूध- मट्ठे से कंठ के नीचे उतारे जाने वाले अनाजों पर अनेक कहावतें, लोकगीत पहेलियां और लोक कथाएं थीं।
एक परोक्ष लाभ यह भी था कि इन मोटे अनाजों को खाने वाले हमारे ग्रामीण कृषि आश्रिति समाज को कभी, मोटापा,रक्तचाप, सुगर जैसी बीमारी नहीं होती थी। वंशानुगत कारणों से यदि किसी को हुई भी तो उतनी असर कारक नही होती थी। क्योकि इनमें स्वाभाविक उनके समन के औषधीय गुण मौजूद थे। पर आज जब से हमारा भोजन मात्र गेहूं चावल में सिमट गया है, तो अमूमन हर तीसरा ब्यक्ति इन बीमारियों से ग्रसित है। तो आइए इन लघु धान्न समझे जाने वाले अपने अनाजों के गुण धर्मो पर ही क्यों न कुछ कहावतें सूत्र बध्य कर दें ?
लघू धान्न ले आइए, खाने हित निज गेह।
भगे मोटापा छोड़ घर, रक्तचाप मघुमेह।।
सांवा कुटकी लोक में, ऐसे रहे अनाज।
तुरत पके राहत दिए, खाया मनुज समाज।।
कोदो काकुन जो जन खाते, रक्तचाप मधुमेह न आते।
अच्छी सेहत अच्छा मन, यदि हम खाबें मोटे अन्न।।
तिगुने पोषक तत्व के, मोटे सभी अनाज।
कुदरत ने उनको रचा, खाए मनुज समाज।।
जब तक मोटे अन्न यह, खाते थे सब लोग।
रक्तचाप मोटा पना, आए कभी न रोग।।
रक्तचाप मधुमेह से, चाहें अगर निजात।
मोटा अन्न खरीद कर, रहे हमेशा खात।।
कोदो कुटकी सँवा अरु, काकुन मोटे अन्न।
राखें स्वस्थ शरीर को, मन निश्चिंत प्रशन्न।।
भोजन में शामिल करें, मोटे आप अनाज।
स्वस्थ तभी रह पायेंगे, वक्त कह रहा आज।।
इस वर्ष इन अनाजों पर सरकार भी खूब ध्यान दे रही है। लेकिन पहले यह भी सोचना पड़ेगा कि आखिर यह समाप्त क्यों हो गए ? पहले इन्हें बोना और खाना हमारी मजबूरी थी पर आज वह स्थित नही है। किसान कोई विष पान करने वाला भोले नाथ नही है कि वह जोखिम और घाटा ही उठाता रहे। इनका उत्पादन इतना कम है कि वर्तमान भाव में इनकी खेती नहीं हो सकती। सरकार के पास बड़े-बड़े कृषि प्रक्षेत्र हैं। पहले वहां कृषि विभाग उगाकर आय ब्यय का अध्ययन कर ले और उसके अनुसार मूल्य रखे तभी उनकी खेती सम्भव है।
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