Monday, September 11, 2023

विकास के साथ अपनी प्राचीन धरोहरों, स्थापत्य कला व संस्कृति भी बचाना जरूरी !

  • पन्ना - पहाड़ीखेरा मार्ग पर लक्ष्मीपुर के निकट स्थित यह पुलिया अब नहीं मिलेगी   
  • अपनी अनूठी स्थापत्य कला और बेजोड़ बनावट के चलते अब तक अडिग थी पुलिया

पन्ना-पहाड़ीखेरा मार्ग पर लक्ष्मीपुर के निकट स्थित प्राचीन राजशाही ज़माने की यह पुलिया अब नहीं दिखेगी। 

।। अरुण सिंह ।। 

पन्ना। प्राचीन और भव्य मंदिरों के लिए प्रसिद्ध मध्यप्रदेश का पन्ना जिला ऐतिहासिक व पुरातात्विक महत्व की बुंदेली स्थापत्य वाली इमारतों और किलों के लिए भी जाना जाता है। राजशाही ज़माने में यहाँ निर्मित पुल और पुलियाँ तथा अनूठी जल संरचनायें आज भी अपनी अनूठी स्थापत्य कला की द्रष्टि से बेजोड़ हैं और समुचित देखरेख न होने व उपेक्षा के वावजूद भी अपना वजूद कायम किये हुए हैं।  

पन्ना शहर की जीवन रेखा कहे जाने वाले पन्ना-पहाड़ीखेरा मार्ग पर लक्ष्मीपुर के निकट स्थित प्राचीन राजशाही ज़माने की पुलिया भी अनूठी है। चूँकि इस सड़क मार्ग का चौडीकरण सीआरएफ येाजना के तहत किया जा रहा है। इसलिए ऐतिहासिक महत्व वाली इस पुलिया को भी तोडा जा रहा है। आश्चर्य की बात तो यह है कि सौ साल से भी अधिक पुरानी इस पुलिया को जेसीबी मशीन से तोड़ने में भी कठिनाई हो रही है। इस सडक मार्ग पर यातायात को सुगम बनाने के लिए इसकी चौडाई 7.50 मीटर की जा रही है ताकि आवागमन सुगम हो और पर्यटन विकास को भी बल मिले। लेकिन विचारणीय बात यह है कि सड़क मार्ग पर निर्मित किये जा रहे पुल व पुलियाँ  क्या गुणवत्ता और मजबूती की दृष्टि से तोड़ी गई पुलिया का मुकाबला कर सकेंगी ? 

लक्ष्मीपुर पैलेस के पहले मानस वट वृक्ष वाले प्रसिद्ध आश्रम के सामने स्थित यह प्राचीन अनूठी पुलिया अब देखने को नहीं मिलेगी। बीते कई दिनों से इस पुलिया को तोड़ने का काम जेसीबी मशीन से किया जा रहा है। पुलिया को तोड़े जाने के द्रश्य की फोटो स्वयंसेवी संस्था समर्थन के रिजनल क्वार्डिनेटर ज्ञानेन्द्र तिवारी ने उपलब्ध कराते हुए बताया कि पुलिया इतनी मजबूत है कि उसे तोडना मुश्किल हो रहा है। मशीन तक के अस्थि पंजर ढीले हो रहे हैं, जेसीबी के पंजे काम नहीं कर रहे। 


श्री तिवारी ने बताया कि बीते रोज जब वे फील्ड से वापस पन्ना लौट रहे थे तो आश्रम के सामने स्थित पुलिया में गड़गड़ाहट की आवाज सुन रूक गया। वहां का नजारा देख हैरत में पड़ गया। पत्थर और चूना गच्ची से निर्मित इस पुलिया की बनावट, स्थापत्य कला और मजबूती देखते ही बनती है। लेकिन सड़क मार्ग का चौड़ीकरण होने के चलते कल तक यह पुलिया गायब हो जाएगी, आपको न मिलेगी। सड़क मार्ग का चौडीकरण और विकास जरूरी है, लेकिन क्या अपनी प्राचीन धरोहरों, स्थापत्य कला व संस्कृति को बचाने के उपाय नहीं खोजे जा सकते ? 

एक शताब्दी से भी अधिक समय से अडिग खड़ा यह पुल जेसीबी मशीन के क्रूर पंजों के हमलों से कराह रहा था। पुलिया से निकल रही आवाजें यह बताने का प्रयास कर रही थीं कि हम कमजोर न थे लेकिन हमारा समय कमजोर है। आज तक हमारे ऊपर से अनगिनत लोग और वाहन गुजरे लेकिन हमने कभी उफ़ नहीं किया, हमेशा ख़ुशी ही मिली। हमें तोड़कर इस जगह अब नई पुलिया बनेगी लेकिन उसे देखने के लिए हम नहीं रहेंगे। 

लक्ष्मीपुर पैलेस का भी है अनूठा इतिहास 


पन्ना-पहाड़ीखेरा मार्ग के किनारे स्थित लक्ष्मीपुर पैलेस (फाइल फोटो)  

लक्ष्मीपुर पैलेस का निर्माण तत्कालीन पन्ना नरेश महाराजा रुद्र प्रताप सिंह ने करवाया था। लगभग सवा सौ वर्ष पूर्व निर्मित इस पैलेस में अनेकों वर्षों तक महाराज रुद्र प्रताप सिंह निवास करते रहे हैं। आपने 1870 से लेकर 1893 तक पन्ना राज्य में शासन किया और इस दौरान लक्ष्मीपुर पैलेस सहित पन्ना के सुप्रसिद्ध बलदेव जी मंदिर, गोविंद जी मंदिर, अजयगढ़ की घाटी, राज मंदिर पैलेस तथा सड़कों का निर्माण कराया गया। जानकारों का कहना है कि महाराज रुद्र प्रताप सिंह के शासनकाल में ही पन्ना शहर का नवनिर्माण हुआ। राजाशाही जमाने की इस भव्य और प्राचीन इमारत को राज्य शासन द्वारा वर्ष 1972 के बाद खुली जेल में तब्दील कर दिया गया था। 

खुली जेल बनने के उपरांत लक्ष्मीपुर पैलेस में उस समय के दुर्दांत डकैत मूरत सिंह, मौनी रामसहाय, पूजा बब्बा व शंकर सिंह गिरोह के एक सैकड़ा से भी अधिक डकैत रहते रहे हैं। लक्ष्मीपुर गांव के बड़े बुजुर्ग बताते हैं की मूरत सिंह के गैंग में 35 लोग थे, जिनमें लक्ष्मण सिंह, मिच्चू यादव, नत्थू यादव, बब्बू व देवी सिंह मुख्य थे। मौनी रामसहाय गिरोह के मर्दाना विश्वकर्मा, गोविंद सिंह और शंकर सिंह गिरोह के प्रमुख डकैतों में विश्वनाथ सिंह, छोटेलाल व अर्जुन सिंह आदि थे। भय और आतंक के पर्याय बने इन डकैतों ने लक्ष्मीपुर पैलेस में कई साल गुजारे थे। 

बताया जाता है की खुली जेल रही लक्ष्मीपुर पैलेस में उस समय कुल 110 डकैत थे। इन डकैतों ने मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रकाश चंद्र सेठी के सामने 31 मई 1972 को देव स्थल जटाशंकर में आत्मसमर्पण किया था। जानकारों का कहना है कि मूरत सिंह का गिरोह सबसे बड़ा था। इस गिरोह के अधिकांश सदस्य रौबदार मूंछे रखते थे, जिन्हें देखने के लिए दूर-दूर से लोग खुली जेल लक्ष्मीपुर में आते थे। बताया जाता है की मूरत सिंह पूरे 30 वर्षों तक फरार रहा और इस दौरान इस गिरोह की तूती बोलती रही। 

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