Monday, September 18, 2023

नैसर्गिक ढंग से उगने वाली धान पसही : बाबूलाल दाहिया

डबरों पोखरों में नैसर्गिक ढंग से उगने वाली धान पसही। 

  

किसी परम्परागत देसी किस्म के अनाज की एक पहचान यह भी है कि उसकी उस क्षेत्र में जंगली किस्म भी हो। इस मापदंड में हम धान, कोदो ,तिल और मूँग को बड़े विश्वास के साथ कह सकते हैं कि यह हमारे यही के अनाज होंगे ? क्योंकि इनकी सभी की जंगली प्रजातियां यहां मौजूद हैं।

पसही नैसर्गिक ढंग से डबरों पोखरों में उगती है, और अपना वंश परिवर्धन करती है। हमने देखा है कि 1979 में ऐसा घनघोर सूखा पड़ा कि 8 अगस्त से वर्षा पूरी तरह समाप्त हो गई तो बाद में दिसम्बर लास्ट में ही बारिश हुई थी। जिससे धान और सभी अनाजों के साथ पसही भी हर एक डबरों पोखरों की समाप्त हो गई थी। पर इसके बाबजूद भी वह दो तीन वर्ष में सभी डबरों पोखरों में लहलहा उठी।

क्योंकि उसने अपना बीज सम्बाहक कीचड़ में लोटने वाली भैस को बना रखा है। उसके सेंक़ुर युक्त बीज भैस के पीठ में चिपट जाते हैं,और फिर एक तलाब से दूसरे तलाब एवं डबरों पोखरों में पहुंच जाते हैं। हुआ यह कि वह देशब्यापी सूखे के बाबजूद भी बारह मासी पानी वाले तलाबों में बच रही थी। अस्तु उसका बीज दूसरे वर्ष भैस के माध्यम से पुनः सभी डबरों में चला गया। इसने अपना सुरक्षा कवच भी बड़े- बड़े सघन सेंकुर को बनाया है जिससे जानवर इसे नही खाते।

वह अन्य धानों की तरह एक साथ पकती भी नही, बल्कि नए किल्ले आते जाते हैं और निपस कर बालो में दाने पकते व झड़ते जाते हैं। इस तरह वह प्रकृति से समन्वय बना बिषम परिस्थिति में भी अपने को जीवित किए हुए है।

पसही और भैस के समन्वय से यह भली भांति ज्ञात होता है कि जैव विविधता की दृष्टि से हर एक जीव का रहना जरूरी है। क्योंकि एक न रहा तो दूसरा भी समाप्त हो जायगा। पसही कि तरह ही अन्य जीव जन्तुओं और बनस्पतियों का भी समन्वय है। सभी बनस्पतियों ने अपना कोई न कोई बीज सम्बाहक यजमान बना रखा है। बस अपने आस पास नजर दौड़ाने की आवश्यक्ता है।

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