Monday, April 1, 2024

हमारे सप्त ग्रामीण रिसर्च ऋषि एवं उनकी अनुसंधान की वस्तुएं

  • पद्मश्री से सम्मानित बाबूलाल दाहिया जी अब किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। उन्होंने काम ही कुछ ऐसा किया है जो अनूठा और अकल्पनीय है, उनके कार्य ने ही उन्हें विशिष्ट बना दिया है। जिला मुख्यालय सतना से तकरीबन 26 किलोमीटर दूर स्थित पिथौराबाद गांव के निवासी बाबूलाल दाहिया वह शख्स हैं, जिन्होंने ढाई सौ से अधिक दुर्लभ धान की किस्मों सहित, गेहूं और मोटे अनाज और सब्जियों के अनेकों किस्मों का संरक्षण किया है। इसके अलावा आपने एक ऐसा संग्रहालय भी बनाया है जिसमें सदियों पुराने विलुप्त हो चुके कृषि यंत्रों और नायाब वस्तुओं को संजोया गया है। यह संग्रहालय मौजूदा समय देश व दुनिया में चर्चा का विषय बना हुआ है। इसके बारे में श्री दाहिया क्या कहते हैं, आइये पढ़ते हैं उन्ही की लेखनी -                       

 

पद्मश्री बाबूलाल दाहिया द्वारा बनाये गए इस अनूठे संग्रहालय को देखने देश व दुनिया भर से लोग आ रहे हैं। 

।। बाबूलाल दाहिया ।।

जब हम राजस्थान या किन्ही अन्य राजाओं के प्राचीन किले या उनके म्यूजियम को देखने जाते हैं, तो वहां उनके ढाल, तलवार, भाला बरछी आदि सभी अस्त्र शस्त्र देखने को मिलते हैं। आज जब बड़े-बड़े टैंक मसीनगन, मिसाइल आदि आधुनिक मारक अस्त्र बन गए हैं, तो भला इन ढाल तलवारों की क्या  आवश्यकता ? पर आवश्यकता है, क्योंकि वह उन राजाओं के अतीत और बहादुरी का बखान कर रहे हैं। जिनने इन अस्त्रों को चलाकर युद्धों में विजय प्राप्त की थी।

70 के दशक में हरित क्रांति आने और उससे कृषि की पद्धति बदल जाने के कारण हमारी परम्परागत खेती के भी सैकड़ों उपकरण चलन से बाहर हो गए हैं। क्योंकि अगर घर से एक हल भी निकल जाता है तो उसके साथ, जुआं, ढोलिया, ओइरा, बांसा, हरइली, डेंगर, खरिया, मुस्का, गड़ाइन आदि अनेक छोटे-बड़े उपकरण भी चलन से बाहर हो जाते हैं।

मनुष्य का स्वभाव रहा है कि वह विकास के रास्ते जितना आंगे बढ़ जाता है तो फिर पीछे नहीं लौटता। उसके इसी आंगे बढ़ने की प्रवृत्ति के कारण हमारे बघेलखण्ड की अनेक दैनिक उपयोग की वस्तुएं एवं बर्तन भी इसके शिकार हुए हैं। इस तरह सब मिलकर लगभग दो तीन सौ ऐसी चीजें व उपकरण हैं, जो आज चलन से बाहर हैं। यह जितने उपकरण या वस्तुएं हैं वह किसी फैक्ट्री के बने नहीं बल्कि हमारे गांव में ही निवास करने वाले अपढ़ व देशज इंजीनियरों के बनाए हुए हैं। जिनके हाथ में प्राचीन समय में समस्त गांव के विकास की धुरी ही हुआ करती थी।

हमारे ग्रामों में उस समय एक मुहावरे नुमा वाक्य होता था (शतीहों जाति), जिसका आशय यह था कि जिस गाँव में यह सात उद्दमी जातियां निवास करतीं थीं वह गांव आत्म निर्भर गांव माना जाता था। क्योकि तब वहां बाहर से मात्र नमक और कच्चा लोहा ही आता था। बांकी सभी जरूरत की वस्तुएं गांव में खुद ही तैयार हो जाती थीं। वह शिल्पी जातियां थीं लोहार, बढ़ई, तेली, कुम्हार, बुनकर, चर्मकार, वंशकार, नाई, धोबी।  इनमें से कुछ अपनी निर्मित वस्तुएं हमें देते थे, तो कुछ अपनी सेवाएं। परन्तु यह लोक विद्याधर अपने यंत्र और उपकरण बनाने का प्रशिक्षण लेने किसी संस्थान में नहीं जाते थे, बल्कि अपने यंत्रों एवं उससे निर्मित वस्तुओं की परिकल्पा स्वयं करते थे। 

संग्रहालय में रखे पुराने उपकरणों व वस्तुओं के बारे में बताते हुए श्री दाहिया। 

उदाहरण के लिए यदि किसी मिट्टी शिल्पी कुम्हार ने अपना चाक बनाया, तो मनुष्य के लिए उपयोगी बर्तन मटकी, मटका, नाद, दोहनी, डबुला से लेकर दिया चुकड़ी आदि 30-35 प्रकार के वर्तनों की परिकल्पना भी उसने खुद ही की। उनमें एक और लोकविद्याधर है, वह है (पत्थर शिल्पी) जो स्वतन्त्र रूप से अपने बर्तन या वस्तुए बनाकर बेंचता था।

हमने अपने अथक प्रयासों से अब तक चलन से बाहर हो चुकी विभिन्न शिल्पियों की ऐसी 250 से अधिक बस्तुए संकलित कर उनको अपने संग्रहालय में स्थान दिया है। आज तो मात्र भूमिका ही है, पर कल से हम अपने संग्रहालय में संग्रहीत उन सभी उपकरणों एवं वर्तनों की जानकारी क्रमशः चित्र सहित धारा वाहिक रूप से प्रस्तुत करेंगे।

00000

No comments:

Post a Comment