।। बाबूलाल दाहिया ।।
कल हमने इस धारावाहिक के सम्बंध में बताया था कि आज से उसकी शुरुआत करेंगे। लगता है नर वानर से मनुष्य के रूप में विकसित होने के पश्चात मनुष्य ने सर्व प्रथम यदि कुछ बनाया रहा होगा तो वह पत्थर के उपकरण ही बनाए होंगे। क्योंकि पुरातत्व में पत्थर के वह उपकरण आदिम युग तक के प्राप्त हैं, जब मनुष्य पाषाण कुठार से अपनी तथा अपने परिजनों की रक्षा करता और उसी से शिकार भी करता रहा है।
परन्तु हम अपने इस कार्य में जिन प्रस्तर बर्तनों और उपकरणों को प्रस्तुत कर रहे हैं, वह पाषाण युग के नही बल्कि ईशा पूर्व 800 वर्ष के बाद तब से अब तक के हैं जब लोह अयस्क के खोज के पश्चात मनुष्य नदियों के किनारे बसने के बजाय मैदान में बसने लगा था। क्योंकि लौह की यह खोज अपने पूर्ववर्ती आग और पहिए की खोज के पश्चात की तीसरी क्रांति थी, जिससे समाज का अमूल चूल परिवर्तन हुआ था। यही कारण है कि समस्त ग्रामीण शिल्पियों के उद्योगों का जनक लौह अयस्क ही माना जाता है।
हमारी यह पड़ताल उस कालखंड से लेकर 19वी शताब्दी तक की है, जिनमें लोढ़ा, सिलौंटी, चकिया,जेतबा से लेकर मनुष्य समाज ने कुड़िया, पथरी तक की अपनी यात्रा कर लिया था। इस धारावाहिक में हम कुछ प्रस्तर शिल्पियों के उपकरणों की वही समस्त जानकारी मय चित्र क्रमशः प्रस्तुत कर रहे हैं।
सिलौंटी -
यह एक हाथ लम्बी और सवा बीता चौड़ी एक पत्थर की शिला होती है जिसके बीच के भाग को टाँकी से टांक कर खुरदरा बना दिया जाता है। इसमें मुख्यतः चटनी, मसाले, नमक आदि पीसे जाते हैं। पर इसके साथ एक लोढ़ा भी होता है। क्योकि बिना लोढ़ा उसका कोई अस्तित्व नही होता।
लोढ़ा -
यह पत्थर का एक बालिन्स लम्बा और लगभग 4-5 अंगुल चौड़ा गोल आकार का पिंड होता है। उसके भी नीचे टाँकी से टांक कर खुरदरा बना दिया जाता है जिससे सिलौंटी में रखे मसाले, नमक, चटनी आदि समस्त वस्तुओं को यह आसानी से बांट कर बारीक बना सके। कम से कम साल में एक बार लोढ़ा- सिलौंटी को पत्थर शिल्पी टकिए से टकवाना अवश्यक होता है। क्योंकि लम्बे समय तक घिसते -घिसते उनका खुरदना पना चिकना हो जाता है। सिलौंटी की तरह यद्दपि इसकी अहमियत आज भी यथावत है पर मसाला पिसाई के मिक्सर आदि आ जाने से उपयोगिता कुछ-कुछ घटने लगी है।
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