।। बाबूलाल दाहिया ।।
हमने इस उपकरणों के धारावाहिक में पत्थर शिल्पियों द्वारा निर्मित लोढ़ा, सिलौंटी एवं कूँड़ा की जानकारी मय चित्रों के प्रस्तुत की थी। आज उसी क्रम में कुछ अन्य प्रस्तर के बर्तनों एवं उपकरणों की जानकारी दे रहे हैं।
पथरी - यह लगभग हाथ भर चौड़ा गोलाकार एवं 4 इंच ऊँची बाट का एक पत्थर का पात्र होता है जिसमें पहले आटा गूथ कर रोटियां बनाई जाती थीं। इसके दोनो ओर पकड़ने के लिए दो इंच उभरी हुई मूठ भी बना दी जाती थी जिससे इधर उधर लाने लेजाने में आसानी रहे। पर इस बर्तन को औंधा करके उसके नीचे बची खुची रोटियां य दूध रखदेने से कुत्ते बिल्ली से उनकी सुरक्षा भी होजाती थी। परन्तु पीतल की कोपरी आदि आटा गूथने के बर्तन आ जाने से यह अब पूर्णतः चलन से बाहर है।
चौकी - यह एक से डेढ़ इंच मोटा एवं १फीट चौड़ा गोलाकार पत्थर का पात्र होता है जिसमें बेलना से पूड़ी रोटी आदि बेली जाती थी। परन्तु वजनी होने के कारण यह एक स्थान पर ही रखी रहती थी। अब लकड़ी की हल्की चौकी आ जाने से यह पूर्णतः चलन से बाहर है।
होड़सा - यह डेढ़ इंच मोटा आधा फीट चौड़ा देवालय आदि में रखा रहने वाला पत्थर का एक छोटा सा पात्र होता था जिसमें पुजारियों द्वारा चन्दन घिस कर देवताओं और अपने माथे में लगाया जाता था। यह अब भी देवालयों में है।परन्तु पत्थर शिल्पी अब इसे बिल्कुल नही बनाते।
खलबट्टा - इसे बनाने के लिए लगभग एक फीट ऊँचे चौकोर पत्थर में एक बालिन्स का होल बनाया जाता था।और प्राचीन समय में उसी में डाल कर सूखी जड़ी बूटियों को लौह पिंड य लोढ़े से कूट कर चूर्ण किया जाता था। यह दो तीन प्रकार के आकार का बनता था। परन्तु अब कम्पनियों की बनी औषधियां आजाने से यह चलन से पूर्णतः अलग है।
कृषि आश्रित समाज के भूले विशरे प्रस्तर उपकरण ( तीसरी किस्त)
कांडी - यह पत्थर में बना 4-5 इंच गहरा गोलाकार एक गड्ढा होता था जिसे जमीन के बराबर तक आंगन य घर के किसी कोने में गड़ा दिया जाता था और फिर उसी में डालकर मूसल से चावल धान आदि की कुटाई की जाती थी। पर अब धान की मिलिंग मसीनों से होने के कारण यह पूर्णतः चलन से बाहर है।
जेतबा (जेता) - यह चार इन्च मोटा सवा फीट चौड़ा गोल आकार का एक पत्थर का पिसाई एवं घाठ आदि दरने वाला उपकरण होता था जिसमें लकड़ी की मानी में बनी मूठ तथा लोह की कील लगती थी। यह दो भागों में बटा होता था। नीचे का भाग स्थायी रूप से जमीन में स्थिर रहता किन्तु ऊपर वाला भाग घूमता रहता था। इसमें मानी के अगल बगल अनाज डालने के लिए 2 इंच लम्बे चौड़े छिद्र भी होते थे। इसकी मानी को जेतबा के बने खांचे में ठोक कर फिट कर दिया जाता था। और फिर उसकी मूठ को पकड़ कर पिसाई य घाठ की दराई की जाती थी।
चकरिया - यह पत्थर का दाल दलने का एक उपकरण है जिसके दो पाटे होते हैं और दोनों पाटों में एक छेंद होता है जिसमें पड़ी हुई लकड़ी के बीच चकरिया घूमती है। साथ ही ऊपर वाले खण्ड में एक डेढ़ इंच का होल रहता है जिसमें मुठिया लगा दी जाती है। यह अभी भी चलन में है परन्तु दाल मिलों में दलहन अनाजों की दली हुई दाल के प्रचलन से इसमें भी कमी आ गई है।
चकिया - यह गोलाकार चपटे पत्थर का बना आटा पीसने का एक यंत्र होता था जिसके दो भाग होते थे। पहले भाग को एक लकड़ी के खूँटे में लोहे की कील के साथ जमीन में स्थायी तौर पर रख कर मिट्टी से छाप दिया जाता था। फिर ऊपर के पाटे को उसी लोहे की कील में फँसा कर पिसाई की जाती थी जिसमें किनारे की ओर एक होल बना कर पकड़ने के लिए मूँठ भी लगा दी जाती थी।
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