।। बाबूलाल दाहिया ।।
आजादी के पहले एक अनुमान के अनुसार कहते हैं हमारे देश में परम्परागत धान की 1 लाख 10 हजार किस्में हुआ करती थीं। 22 हजार 8 सौ किस्में तो रायपुर यूनिवर्सिटी के एक मसहूर कृषि बैज्ञानिक डॉ. राधेलाल रिछारिया जी ने ही अविभाजित मध्यप्रदेश में खोज निकाला था। परन्तु दुःखद बात यह है कि अब समूचे भारत की एक लाख 10 हजार किस्मों में एक लाख तो पूरी तरह समाप्त ही हैं यदि बची भी होंगी तो 10 हजार के अन्दर ही।
इसी तरह मध्यप्रदेश में अब 22 हजार 8 सौ में से यदि 800 मिल जांय तो बहुत हैं। 200 के आस पास हमारे पास हैं इसी तरह कुछ अन्य पर्यावरण प्रेमी धान संरक्षक और कुछ किसानों के पाश बची होंगी। परन्तु बिगत 50 वर्षो में परम्परागत धानों का इतनी मात्रा में विलुप्त हो जाना भर दुखद नही है ? बल्कि दुखद तो यह भी है कि उनके द्वारा हजारों वर्षों से यहां की परिस्थितिकी में रच बस और ढल कर जो भी गुणधर्म अपने गुणसूत्रों में उनने विकसित किए थे वह भी उनके साथ पूरे के पूरे तिरोहित हो गए।
इन तमाम धानों में बहुत सारी तो सुगन्धित किस्में भी थीं। कुछ तो इतनी सुगन्धित हुआ करती थीं कि अगर मुहल्ले में एक घर में उनका चावल बनता तो आस पास के घरों में भी अपनी सुवास बिखेर देता। दक्षिण भारत में इस तरह की कितनी सुगन्धित धानें थी ? भाषा की दुरूहता के कारण जान पाना कठिन है। पर (उत्तर मध्य भारत) में उनके नाम इस तरह थे जिनमें कुछ अभी भी संरक्षित हैं। उनके वह स्थान भी दिए जा रहे हैं जहां वह उगाई जाती थीं।
1- जीरा शंकर-- सिवनी- बालाघाट (मप्र)
2- चिंनोर --- " "
3- लोंहदी -- " "
4- दिलबक्सा-- छत्तीशगढ़
5- विष्णुभोग -- "
6- बादशाह भोग-- "
7- जीरा फूल "
8- बादशाह परसन "
9- बाँसमती "
10- बाँसमुखी "
11- तुलसी वास "
12- लोकटी "
13- भैंस पाट "
14- शमलिया भोग "
15- भांटा फूल -- सीधी ( मप्र)
16- गोबिंद भोग -- बंगाल
17- काली मूँछ-- डबरा ( ग्वालियर ) मप्र।
18- काला नमक--- बिहार
19- तिलसान -- परसमनिया पठार (सतना) मप्र।
20- कमल श्री -- " "
21- धनाश्री -- " "
22- जिलदार -- रीवा तराई क्षेत्र
23- तिन दनिया -- श्याम गिरि कल्दा ( पन्ना) मप्र
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