Saturday, September 14, 2024

हिन्दी दिवस : हिन्दी की उदारता ही उसकी ताकत है


 ।। बाबूलाल दाहिया ।।

मुझे भोपाल के एक होटल से रानी कमला पति स्टेशन आना था।आटो वाले ने पूछा तो रानी कमलापति नाम ही भूल गया अस्तु जल्दी में कह दिया (हबीब गंज) वह मुस्लिम ड्राइवर सुधारते हुए कहा "अच्छा रानी कमलापति स्टेशन ?" मैंने  " कहा हां।" दरअसल उसे रोज सवारी लाते लेजाते रानी कमलापति रट गया होगा पर मेरे जुवान में वही पुराना ही चढ़ा था। इसी तरह मैं प्रयाग राज को भी अक्सर इलाहाबाद कहने की भूल कर बैठता हूं। 

कुछ वर्षों से शहरों के नाम बदलने की मुहिम तो चली ही थी पर अब बोल चाल में आए फारसी और अंग्रेजी के नामों पर भी कुछ लोग अपनी संकीर्ण मानसिकता थोपने लगे हैं। पर उनसे कौन कहे कि जब हिन्दू, हिन्दुस्तान ही विदेशियों का दिया हुआ नाम है तो हिन्दुओं की भाषा हिन्दी में सुद्धता ढूढ़ना भी ( फूस में फांस ढूढ़ना ) जैसे मुहावरे को चरितार्थ करना ही है। क्योकि उसके बुनियाद में ही सम्मिश्रण है।

हमने गांधी जी के भाषण पढ़े हैं। नेहरू जी के भाषण निजदीक से सुने हैं, और उनकी पुस्तक भारत एक खोज भी पढ़ा है। पर उनके भाषण और लेखन में हिन्दी नही हिन्दुस्तानी रहा करती थी। उन भाषणों में हिन्दी उर्दू का अन्तर न के बराबर था। लगता है आजादी के पश्चात ही हिन्दी अधिक ( संस्कृत निष्ठ ) होकर अपना अलग रूप गढ़ती चली गई और उसकी बड़ी बहन उर्दू भी अधिक (फारसी निष्ठ) होती गई।

पर यकीन मानिए हिन्दी की अपनी ताकत उसकी उदारता ही रही है। जो शब्द सहज, सरल, बोधगम्म बोलचाल में स्वीकार्य हैं चाहे जिस भाषा के हो हिन्दी ने आत्मसात किया अस्तु भाषा लोचदार य मुहावरे दार बनी। उसने यह परहेज नही किया कि वह शब्द फारसी के हैं य अंग्रेजी के। भाषा और लिपि दोनों यूं भी मनुष्य का नैसर्गिक नही अर्जित ज्ञान है। मैं गांव में रहता हूं और यह अनुभव किया हूं कि लोग सरल सहज ग्राह शब्दो को तो अपना लेते हैं पर कठिन को छोड़ देते हैं। कुछ अटपटे शब्दों के बजाय उसके गुण धर्मों के अनुसार नए नाम भी रख देते है। मोटर साइकिल को फटफटिया य आइपोमियाँ का नाम बेसरम रखना उनके उसी मानसिकता के परिचायक हैं।

वे रेल के इंतजार में बैठे हों तो यह कभी भी नही कहते कि " आज लौह पथगामनी बिलम्ब से आएगी।" बल्कि यह कहना अधिक उपयुक्त मानते हैं कि  " ट्रेनलेट है।" जब कि इस वाक्य में 66% इंग्लिश और सिर्फ ( है ) भर हिन्दी का क्रिया पद है। पर एक ही अक्षर 66% इंग्लिश को हिंदी बना देता है। हमें चाहिए कि अपनी हिन्दी को इसी प्रकार समर्थवान रखें। शुरू- शुरू में तो भाषा के रूप में  मनुष्य के मात्र आंखों के इशारे य हाथ के संकेत ही रहे होंगे। ठीक उसी प्रकार जैसे मूक बधिर लोग सब कुछ समझ लेते हैं। यदि कुछ शब्द मुँह से फूटते भी रहे होंगे तो उसी तरह जैसे भूखा बछड़ा (ओ-- मां ---? ) की लम्बी आवाज मुँह से निकालता है और उत्तर में गाय भी हुंकार भरती है। पर तब ग्वाला य किसान भी उनकी भाषा समझ जाता है कि "बछड़ा भूखा है और गाय उसे दूध पिलाना चाहती है।"

भाषा मात्र उर्दू, हिन्दी, संस्कृत य अंग्रेजी भर नही है। प्राचीन समय में देश में सैकड़ों ऐसी बोलियां थी जो एक दूसरे से अलग-अलग थीं और हर एक समुदाय की अपने -अपने सीमित कार्य क्षेत्र के जरूरत की भाषा ही हुआ करती थीं। क्योकि तब संचार के साधन आज जैसे नही थे और विवाह सम्बन्ध आदि 50-60 किलो मीटर के दायरे में ही होते थे। अस्तु उस सीमित क्षेत्र की लोक ब्यौहार की एक अलग तरह की भाषा ही बन जाती थी। इसलिए भाषा कोई भी हो महत्वपूर्ण उसके भाव होते हैं। 

2017 की बात है जब हमारा 5 सदस्यीय दल 40 जिलों के परम्परागत बीज बचाओ यात्रा अभियान में था और बैतूल जिले के एक गांव में रुका था तो हमें ठहरा देख वहां का कोरकू समुदाय रात्रि में हमारे सम्मान में एक लोक नृत्य का कार्यक्रम रखा। कोरकू आदिवासियों की अपनी एक अलग बोली है जिसे वहां बसने वाले अन्य समुदाय यादव, रहांगडाले , ठाकरे, विसेंन आदि भी नही समझते। जब उनके द्वारा गाए गए गीत का अर्थ हमने एक कोरकू टीचर से पूछा तो गीत के भाव को समझ हम खुद ही आश्चर्य चकित रह गए। क्योकि वह गीत कोरकू युवकों को सम्बोधित था जिसमें कहा गया था कि-- " देखो रे ! आज हमारे बीच यह मेहमान आए हैं, अस्तु उनकी सेवा और सुबिधा में कोई कमी मत रखना?" तो यह थी अपढ़ कोरकू लोगों की हमारे प्रति मेहमानवाजी की बिचार अभिब्यक्ति।

हमारी बोली बघेली है और पड़ोसी क्षेत्र के जिलों की बुन्देली। परन्तु न तो बुन्देली को बुंदेला राजपूत बनारस य मिर्जापुर से बुन्देल खण्ड में लाए थे न, ही,बघेल राजा गुजरात से बघेली को लाए होंगे। क्योकि उनके पहले भी बुन्देलखण्ड में चन्देल, खंगार, लोधी, भर एवं गोड़ राजवंश शासन करते थे और बघेलखण्ड में कोल, वेनवंशी, गोंड़, बालन्द आदि राजा हुए थे। इसलिए सिद्ध  है कि यह वर्तमान बघेली बुन्देली पहले भी किसी न किसी लोक ब्यौहार के भाषा के रूप में विकसित रही होंगीं।

पिछले वर्ष जब मैं कोल जनजाति पर शोध सर्वेक्षण कर रहा था तो कोरकू की तरह ही कोल समुदाय के भी एक अलग ( हो ) नामक भाषा के कुछ संकेत मिले थे। ( हो) का अर्थ उस कोलारियन भाषा में (मनुष्य) होता है। हो सकता है प्राचीन बघेली कोलों की (हो) भाषा से ही विकसित हुई हो जो अन्य समुदायों के यहां बस जाने के कारण बदल गई हो? पर उसके अवशेष आज भी हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू व संस्कृत के परिधि से बाहर ( राउत, रउताइन, गउटिया, गउटिन ) आदि सम्मान जनक पद एवं उनका जोहार नामक अभिवादन लोक ब्यौहार में मौजूद हैं।

शहर में रहने वाले किसी ब्यक्ति से यदि पेड़ों के नाम पूछें जाँय तो वह 20-25 नाम बताकर चुप हो जायगा। परन्तु यहां के कोल, गोंड, भुमिया एवं बैगा आदिवासी एक सांस में ही सैकड़ों नाम बता देंगे। इसलिए सिद्ध है कि  पेड़- पौधों, वनस्पतियों ,नदियों पहाड़ों के रखे गए नाम यहां के प्राचीन निवासियों के ही रहे होंगे। परन्तु बाद में पढ़े लिखे लोग उसी प्रकार  प्रलेखी करण कर के उन्हें अपना बना लिए होंगे जैसे हमारे पास संरक्षित 200 प्रकार की परम्परागत धानों के नाम तो किसानों के रखे हुए हैं, पर आज वह हमारे पास लिपिबद्ध हैं तो लोग हमारी मानने लगे हैं।

इसलिए वक्त का तकाजा है कि भाषा बिचार अभिब्यक्ति का माध्यम ही रहे पूजा की वस्तु नही जो देवालय में सजाकर रख दी जाय। क्योकि जैसे- जैसे संचार का दायरा बढ़ता है भाषा में भी एक रूपता आती जाती है।

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