खेत में कटाई के लिए तैयार कोदो की फसल। |
।। बाबूलाल दाहिया ।।
जब से उमरिया के जंगल में 10 जंगली हाथी कोदो खाकर एक साथ मर गए, तब से बेचारा कोदो बहुत बदनाम है। जिस कोदो की फसल को आते जाते हमारे गाय बैल अक्सर चर लेते थे। जिस की गहाई में हम लोग 8 बैल एक साथ नध कर बिना उनका मुँह बांधे दिन-दिन भर गहाई करते थे और पूस माघ में तो फिर कुट्टी काट कर अकड़ी बथुआ के साथ उसके सूखे पुआल को भी खिलाते थे। लेकिन उसे खाकर हाथी जैसे भारी भरकम पशु का मर जाना आज भी अपन के गले नही उतर रहा। बहरहाल सरकार कहती है, तो मानना ही पड़ेगा।
कोदो हमारे विन्ध्य का प्रसिद्ध अनाज है। प्राचीन समय में जब मात्र वर्षा आधारित खेती थी तब कोदो का बहुत बड़ा महत्व था। इसे 80 वर्ष तक बंडे बखारियों में सुरक्षित रखा जा सकता था, इसलिए यह हमारे बाप पुरखों का प्राण दाता भी था। कोदो के खाने से जहाँ रक्तचाप ,मधुमेह जैसे तमाम रोगों से शरीर सुरक्षित रहता था, वहीं बरसात और ठंड के दिनों में खाने से शीत जनित बीमारियां भी नही होती थीं। पिता जी के समय में हमारे यहां 15-20 खण्डी कोदो हुआ करता था, अस्तु उसकी रोटी भी खाते और भात भी।
इसका पौधा यूं भी सूखा बर्दास्त करने में सक्षम होता है, अस्तु अकाल दुकाल में भी कुछ न कुछ फसल पककर अवश्य आ जाती थी। यदि कोदो का चावल कोई 100 ग्राम भी खा कर काम में चला जाय तो उसे दिन-दिन भर भूख नही सताती थी। पर 100 ग्राम कोदो का चावल य रोटी कोई अकेला नही खा सकता था ? उसे खाने के लिए चावल, रोटी के दूने अनुपात में दाल, सब्जी, दूध, मठ्ठा य कढ़ी आदि कुछ न कुछ की ब्यवस्था पहले करना पड़ती थी। इसलिए वह लोगों को क्रियाशील भी बनाए रखता था। इसके लिए लोग अपने बाड़ में भिंडी, तरोई, लौकी, बैगन, टमाटर सेमी आदि कुछ न कुछ उगाएं य फिर जंगल से पडोरा, बरोंता, रेरुआ, अमरोला, वन भिंडी, वन करेली आदि समय - समय पर होने वाली कोई न कोई सब्जी की ब्यवस्था अवश्य करें तभी कोदो राम को हलक के नीचे उतारा जा सकता था।
इसका हमारे विकास में भी कम योगदान नही है। खेतों की मेड़, तालाब, पोखरे, राजा सामन्तों के गढ़ी गुरजे यह सब कोदो के मत्थे ही बनबाए जाते थे। उसे बड़े-बड़े बंडे बखारियों में गाढ़े समय के लिए रख लिया जाता और अकाल के कारण जनता का पालयन न हो अस्तु इसी से सभी निर्माण कार्य कराए जाते थे।
कोदो पर एक कहावत थी कि -
पुखा पुनर्वस कोदो धान।
मघा सुरेखा खेती आन।।
तो उसके पीछे यह तर्क भी था कि आर्द्रा में पहली मानसूनी वर्षा होती है तो सभी खर पतवार खेत में जम आने दीजिए ? उसके बाद एक दो जुताई करके जमी हुई घास को मार दीजिए तब तक पुष्प य पुनर्वस नृक्षत्र भी आ जांयगे तो कोदो को बो दीजिए। बाद में जमने वाली कोई घास उसे नही दबा पाएगी ? क्योकि वह खुद एक घास ही है। परन्तु खेती की पद्धति बदल जाने से हमारा समूचा बघेलखण्ड कोदो रहित हो गया है। जब कि वर्षा आधारित खेती के समय औसत 4 साल में एक साल सूखे का होता था तब हमारे बाप पुरखों को अकाल दुर्भिक्ष के समय जीवित रखने का बहुत बड़ा श्रेय इस कोदो को ही था।
लेकिन अब बिडम्बना तो देखिए कि सदियों के उसके उपकार को हम मात्र 40-50 वर्ष में ही भुला बैठे। बहरहाल हमारा कोदो पक आया है और कल से कटाई लगाएंगे। पर हम तो उसे परम्परागत बीज बचाने के उद्देश्य से इसी प्रकार उगाते हैं जैसे 200 प्रकार की धानों 20 प्रकार के गेहूंओं और अन्य अनाजों को।
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बहुत बढ़िया जानकारी दी है आपने।
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