Saturday, February 18, 2017

प्राथमिक शाला जहां 7 बच्चे दर्ज, उपस्थित सिर्फ एक

  •   यह है शाहनगर जनपद के प्राथमिक शाला चहकना की स्थिति
  •   जिले में 20 से कम बच्चों वाली शालाओं की संख्या डेढ़ सौ से अधिक



शासकीय प्राथमिक शाला चहकना का भवन। फोटो - अरुण सिंह 

 अरुण सिंह,पन्ना। बच्चों को अच्छी शिक्षा मिले ताकि सब पढ़े सब बढ़े का नारा हकीकत बन सके। लेकिन शासन की यह मंशा पन्ना जिले के ग्रामीण अंचलों में पूरी होती नजर नहीं आ रही। गांव-गांव स्कूल जरूर खुल गये हैं तथा शिक्षक भी पदस्थ हैं लेकिन इन स्कूलों से पढऩे वाले बच्चे नदारद हैं। लाखों रू. की लागत से बनवाये गये ज्यादातर स्कूल भवनों में सन्नाटा पसरा रहता है। ऐसा क्यों है तथा इसके लिए कौन जिम्मेदार है, इस तरफ कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा, फलस्वरूप ग्रामीण अंचलों की शैक्षणिक व्यवस्था बेहतर होने के बजाय बेहद चिंताजनक स्थिति में जा पहुँची है।
यहां हम बात कर रहे हैं शाहनगर जनपद क्षेत्र की शासकीय प्राथमिक शाला चहकना की, जहां पर कक्षा-1 से लेकर 5वीं तक स्कूल में सिर्फ 7 बच्चे दर्ज हैं। गत 15 फरवरी को यह प्रतिनिधि अचानक जब इस छोटे से गांव की शाला पहुँचा तो वहां के हालात देख दंग रह गया। दोपहर के 12:30 बज रहे थे, स्कूल में अतिथि शिक्षक कोमल प्रजापति अकेले ही कुर्सी में बैठे कुछ गुनगुना रहे थे। स्कूल के कमरे में एक बस्ता रखा हुआ था, अचानक इस प्रतिनिधि के पहुँचने पर अतिथि शिक्षक उठकर खड़े हो गये। उन्होंने बिना किसी लाग लपेट के यह बताया कि यहां 7 बच्चे दर्ज हैं और आज सिर्फ एक बालक ही पढऩे के लिए स्कूल आया है जो कुछ देर पूर्व ही पानी पीने के लिए पास के हैण्डपम्प में गया है। उपस्थिति रजिस्टर मांगने पर अतिथि शिक्षक ने तुरंत उपलब्ध कराया, जिसमें 7 बच्चों के नाम दर्ज थे जिनमें दो बालक व पांच बालिकायें हैं। मजे की बात यह है कि चार कक्षाओं में सिर्फ एक-एक बच्चे हैं जबकि कक्षा 3 में चार बच्चे हैं। यह पूछने पर कि बच्चे स्कूल क्यों नहीं आते तो अतिथि शिक्षक ने बताया कि कभी-कभी चार से पांच बच्चे आ जाते हैं। चहकना गांव के रन्जोर सिंह से पूछने पर कि गांव के बच्चे पढऩे के लिए स्कूल क्यों नहीं आते? तो उन्होंने बताया कि सभी बच्चों के स्कूल में नाम नहीं लिखे, जिनके लिखे हैं वे भी कभी आते हैं और कभी नहीं आते। जाहिर है कि बच्चों के अभिभावक भी इस ओर ध्यान नहीं देते जितना कि उन्हें देना चाहिए। बच्चों की इतनी कम संख्या के बावजूद शाला में मध्याह्न भोजन बनता है। दोपहर 1 बजे मध्याह्न भोजन लेकर जब एक बुजुर्ग महिला आई उसी समय तीसरी कक्षा में पढऩे वाला एक दूसरा बालक राजभान यादव भी आ गया। इस तरह पूर्व से उपस्थित छात्र बृजेन्द्र सिंह यादव के साथ इस नवागन्तुक छात्र ने मध्याह्न भोजन की रोटी-सब्जी खाई और अपनी कटोरी लेकर फिर वापस घर चला गया। शासकीय प्राथमिक शाला चहकना तो सिर्फ एक उदाहरण है, ऐसी शालाओं की पन्ना जिले में भरमार है, जहां हर माह शासन का पैसा तो खर्च हो रहा है लेकिन उसका कोई लाभ किसी को नहीं मिल रहा। लाखों रू. की लागत से गांव-गांव बनवाये गये शाला भवन अनुपयोगी पड़े हुये हैं, आखिर जब बच्चे ही नहीं हैं तो इन शाला भवनों के निर्माण का औचित्य ही क्या है?

शाला में कम से कम होने चाहिए 20 बच्चे


शाला में उपस्थित एक मात्र छात्र बृजेन्द्र सिंह यादव।

शालाओं में बच्चों की कम उपस्थिति व चहकना प्राथमिक शाला के संबंध में जिला समन्वयक सर्व शिक्षा अभियान बी.के. त्रिपाठी से चर्चा करने पर उन्होंने बताया कि शासन के नियमों और निर्धारित मापदण्डों के मुताबिक प्रत्येक प्राथमिक शाला में कक्षा 1 से लेकर 5वीं तक कम से कम 20 बच्चे दर्ज होने चाहिए। इससे कम छात्र संख्या पर स्कूल के संचालन की अनुमति नियमानुसार नहीं दी जा सकती। आपने यह स्वीकार किया कि जिले में तकरीबन डेढ़ सौ से भी अधिक ऐसी शालायें हैं जहां बच्चों की संख्या कम है। यदि माध्यमिक शालाओं को भी जोड़ दिया जाये तो यह आंकड़ा दो सौ के करीब पहुँच जायेगा। इस स्थिति को श्री त्रिपाठी ने चिन्तनीय बताया और कहा कि क्षेत्रीय जनप्रतिनिधियों के दवाब से जगह-जगह स्कूल भवन बनवा दिये गये हैं लेकिन उन स्कूलों में अपेक्षित छात्र संख्या नहीं है।

Tuesday, February 7, 2017

जंगल भी नहीं बचा अब कैसे हो गुजारा

  • रमपुरा गांव के हरिजन आदिवासियों की जिन्दगी हुई दुश्वार 
  • 12 किमी. दूर सारंग के जंगल से महिलाएं लाती हैं लकड़ी 




अरुण सिंह, पन्ना। जिला मुख्यालय पन्ना से लगभग 30 किमी. दूर स्थित रमपुरा गांव के हरिजन आदिवासियों की जिन्दगी मुसीबतों और कठिनाईयों से भरी हुई है. पन्ना जनपद की ग्राम पंचायत मुटवांकला के अन्तर्गत आने वाले इस हरिजन आदिवासी बहुल गांव में सुविधाओं के नाम पर आवागमन के लिए सुगम मार्ग तक नहीं है. लगभग 600 की आबादी वाले इस गांव में 320 मतदाता हैं, लेकिन इनकी सुध न तो अधिकारी लेते हैं और न ही जनप्रतिनिधि, फलस्वरूप ये आज भी बुनियादी और मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं.
ऊबड़ - खाबड़ जंगली रास्तों से होकर भारी मशक्कत के बाद पन्ना से पत्रकारों का दल गत शनिवार को जब इस दुर्गम गांव में पहुंचा, तो गांव के हरिजन आदिवासी हैरत में पड़ गये. ग्राम पंचायत के सरपंच भानुप्रताप त्रिपाठी ने जब ग्रामीणों को यह बताया कि पन्ना से पत्रकार आप लोगों की समस्याओं को देखने आये हैं, जिसे अखबार में छापेंगे. इससे शासन व प्रशासन का ध्यान इस गांव की तरफ भी जायेगा और समस्याओं का निराकरण होगा. यह सुनकर कुछ ही क्षणों में पूरा का पूरा गांव उमड़ पड़ा और पेड़ की छांव में बैठकर उन्होंने पत्रकारों के सामने दिल खोलकर अपनी पीड़ा और तकलीफों का बखान किया. हिसाबी लाल चौधरी, कृपाल चौधरी व कन्छेदी आदिवासी ने बताया कि गांव में सिंचाई के कोई साधन नहीं है, इसलिए यहां सिर्फ खरीफ की फसल होती है. इस साल सूखा पड़ जाने से खरीफ की फसल भी नहीं हुई. गांव में पिछले दो साल से कोई भी सरकारी काम नहीं हुआ, जिससे अब मजदूरी भी नहीं मिलती. पूर्व में मेड़ बंधान व कपिलधारा कूप के जो काम हुए हैं, उनकी मजदूरी अभी तक नहीं मिली. ऐसी स्थिति में सौ से भी अधिक लोग रोजी रोजगार की तलाश में पलायन कर चुके हैं.
सहोला चौधरी व भूपत आदिवासी ने बताया कि पहले जंगल से गुजर बसर हो जाता था, लेकिन अब 10 - 15 किमी. के दायरे में कहीं जंगल नहीं बचा. खेती हो नहीं पाती, ऐसी स्थिति में हम लोगों का गुजारा कैसे हो? अपने घर परिवार का भरण पोषण करने के लिए गांव की महिलाऐं 10 से 15 किमी. दूर सारंग व बिलखुरा के जंगल से लकड़ी का गट्ठर सिर में लादकर लाती हैं. दूसरे दिन यह लकड़ी बेंचने के लिए रमपुरा से 15 किमी. दूर देवेन्द्रनगर जाती हैं जहां मुश्किल से सौ या अधिकतम डेढ़ सौ में लकड़ी का गट्ठा बिकता है. इसी पैसे से पूरे घर का गुजारा होता है. बिलसी बाई, भगवतिया आदिवासी व रतिया आदिवासी ने बताया कि सुबह 4 बजे गांव से लकड़ी का गट्ठा लेकर जब निकलते हैं तब कहीं जाकर 9 - 10 देवेन्द्रनगर पहुंचते हैं. सबसे बुरी स्थिति तो तब होती है जब गांव में कोई बीमार पड़ता है. सड़क मार्ग व आवागमन की सुविधा न होने से बीमार व्यक्ति को साईकिल से या पीठ में लादकर इलाज के लिए देवेन्द्रनगर ले जाना पड़ता है. यहां के गरीब हरिजन आदिवासियों को उचित मूल्य का राशन लेने के लिए भी 10 कि.मी. की दूरी तय करनी पड़ती है. उचित मूल्य दुकान मुटवांकला में है.
गांव में प्राथमिक व माध्यमिक स्कूल है, लेकिन बहुत ही कम बच्चे स्कूल जाते हैं. पत्रकारों के रमपुरा पहुंचने पर जब ग्रामवासी पेड़ के नीचे एकत्रित हुए तो वहां काफी संख्या में बच्चे भी थे. उनसे जब पूंछा गया कि आप लोग स्कूल क्यों नहीं गये, वहां तो खाना भी मिलता है. तो ग्रामीणों ने कहा कि यदि भरपेट खाना मिलता तो गांव में एक भी बच्चा नजर नहीं आता, अरे साहब यदि जानवरों को खाना दें तो वह देहरी नहीं छोंड़ता. यह पूंछे जाने पर कि गांव में ऐसा कोई व्यक्ति है जो नौकरी करता हो? इस सवाल के जवाब में ग्रामीणों ने बताया कि सिर्फ एक लड़का श्रीनिवास है जो संविदा शिक्षक बन गया है. इसकी वजह का खुलासा भी ग्रामीणों ने किया और बताया कि यह लड़का अपनी बहन के पास सतना चला गया था. वहीं रहकर पढ़ लिख गया और बी.ए. पास करने के बाद संविदा शिक्षक बन गया. रमपुरा गांव का यह पहला लड़का है जिसने बी.ए. तक की पढ़ाई की है और अब सरकारी नौकरी भी कर रहा है. गांव में ऐसे कई बुजुर्ग भी हैं जिनका कोई सहारा नहीं है. इन बुजुर्गों को पात्रता के बावजूद भी वृद्धावस्था पेंशन नहीं मिल रही. जिन्हें मिलती है उन्हें भी पेंशन के लिए भटकना पड़ता है. पछीता, नन्दू, भूपत, रामस्वरूप तथा सुकमरिया ने बताया कि अषाढ़ के महीने से उन्हें पेंशन नहीं मिली, तीन बार देवेन्द्रनगर जाकर वापस लौटे हैं.

रमपुरा में नहीं है आंगनवाड़ी केन्द्र 




हर तरह की बुनियादी सुविधाओं से वंचित हरिजन आदिवासी बहुल रमपुरा गांव में आंगनवाड़ी केन्द्र भी नहीं है. ग्राम पंचायत के सरपंच की मौजूदगी में ग्रामीणों ने बताया कि चूंकि रमपुरा में सिर्फ हरिजन आदिवासी रहते हंै, इसीलिए इस गांव की कोई सुध नहीं लेता. गांव में शून्य से पांच साल तक के तकरीबन सौ बच्चे हैं, फिर भी यहां आंगनवाड़ी केन्द्र नहीं खोला गया. यहां कई ऐसे बच्चे भी हैं जो कुपोषण के शिकार हैं, लेकिन कोई देखने वाला नहीं है. ग्रामीणों ने बताया कि गांव में अधिकारी तो कभी आते नहीं, जनप्रतिनिधि भी सिर्फ चुनाव के समय वोट मांगने आते हैं. क्षेत्रीय विधायक महेन्द्र बागरी के संबंध में ग्रामीणों ने बताया कि वे चुनाव के समय आये थे, इसके बाद फिर कभी उनके दर्शन नहीं हुए.

गांव के वजूद पर मंडरा रहा संकट 


इस दुर्गम हरिजन आदिवासी बहुल रमपुरा गांव के वजूद पर भी संकट मंडरा रहा है. ग्रामवासियों ने बताया कि 1975 के पूर्व तक इसकी पहचान रमपुरा ग्राम के रूप में थी. इसके बाद इसे बसई ग्राम का मजरा बना दिया गया. अब तो रमपुरा गांव को खत्म कर बसई में ही मिला दिया गया है जबकि बसई गांव की दूरी 5 किमी. है. सहोला चौधरी व भूपत आदिवासी ने बताया कि विकास के नाम पर जो भी पैसा शासन से आता है उसे बसई में ही खर्च कर दिया जाता है. रमपुरा गांव में एक धेले का भी कोई काम नहीं कराया जाता. ग्रामीणों के मुताबिक इसकी वजह भी यही है कि रमपुरा में सिर्फ गरीब हरिजन आदिवासी निवास करते हैं, जबकि बसई में पैसे वाले बड़े लोग करते हैं.