- केमिकल फार्मिंग देश की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक
- 90 की उम्र पार कर चुके किसान की दिलचस्प और प्रेरणादायी कहानी
- अपने खेतों में आज तक कभी रसायनों का नहीं किया इस्तेमाल
किसान इंदर सिंह युवाओं को जैविक खेती के बारे में बताते हुए। |
आज़ादी के बाद जब देश में हरित क्रांति आई तो पूरे देश के किसानों के खेतों को इसने अपने प्रभाव में ले लिया। उस समय केमिकल फार्मिंग की जो लहर देश के लोगों को एक वरदान लग रही थी, वही आज देश की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक है। पर 90 की उम्र पार कर चुके किसान इंदर सिंह सिद्धू के मुताबिक उन्होंने अपने खेतों में आज तक कभी रसायनों का इस्तेमाल नहीं किया है। उन्होंने हमेशा से ही अपनी ज़मीन को केमिकल मुक्त रखा। चाहे फसल अच्छी हो या फिर न हो, पर उन्होंने कभी भी कोई पेस्टिसाइड इस्तेमाल नहीं किया। उनके बेटे हरजिंदर सिंह बताते हैं कि जब हरित क्रांति का दौर आया था तो उनके गाँव में भी सभी ने इसे हाथों-हाथ लिया। पर इंदर सिंह के मन में सिर्फ एक ही बात चल रही थी कि अगर केमिकल डालने से खरपतवार या फिर अन्य कीट मर सकते हैं, तो क्या इनकी मदद से उगी यह फसल इंसानों के खाने के लिए सुरक्षित है? उनके मन की इसी उलझन ने उन्हें कभी भी रासायनिक खेती नहीं करने दी। और फिर उनके बेटे-बहु ने भी उनकी इसी विरासत को आगे बढ़ाया।
पंजाब में फज़िल्का जिले के रामपुर गाँव में रहने वाला सिद्धू परिवार एक मिसाल है। वे न सिर्फ जैविक खेती से जुड़े हुए हैं बल्कि उनकी पूरी की पूरी लाइफस्टाइल ही सस्टेनेबल है। इंदर सिंह कहते हैं, “ज्यादा पैसे कमाने के चक्कर में लोगों ने अंधाधुंध यूरिया खेतों में डाला। जैसे पंजाब के लोगों को नशे की लत लग गयी वैसे ही इन किसानों ने ज़मीन को भी केमिकल की लत लगा दी। और फिर न तो ज़मीन बची और न ही उस पर उगने वाले अनाज में कोई क्वालिटी।”पर इंदर सिंह कभी भी पैसे के पीछे नहीं भागे। उन्होंने जिन प्राकृतिक तरीकों से अपने पूर्वजों को खेती करते देखा, उन्हीं से खुद खेती की।
गेहूँ, चावल और गन्ने जैसी पारंपरिक फसलों से लेकर वे हल्दी, साग-सब्ज़ियां व फल आदि, सभी कुछ जैविक तरीकों से उगाते हैं। वे खेतों में सिर्फ जैविक खाद का इस्तेमाल करते हैं और इसके अलावा, वेस्ट डी-कंपोज़र जैसे प्रोडक्ट जो कि पूरी तरह से इको-फ्रेंडली हैं, इस्तेमाल करते हैं। कीटनाशक के तौर पर वे खेतों में खट्टी छाछ का, या फिर नीम और आक की पत्तियों से बना स्प्रे करते हैं। उनका खेत गेहूँ की बहुत पुरानी देसी किस्म- बंसी गेहूँ के लिए खास तौर पर जाना जाता है। इस गेहूँ में पोषण की मात्रा काफी अधिक होती है और इसकी अच्छी उपज लेने के लिए किसान को काफी मेहनत भी करनी पड़ती है। पर सिद्धू परिवार के फार्म में यह गेहूँ सालों से उगाया जा रहा है और उनके घर में इसी गेहूँ का आटा खाया जाता है। अनाज की फसलों के अलावा, उनका एक बाग़ भी है जिसमें मुख्य रूप से अमरूद के पेड़ हैं और इसके अलावा, चीकू, करौंदा, अनार, एलोवेरा जैसे पेड़ भी यहां मिल जायेंगे। साथ ही, ज़मीन के एक टुकड़े पर मौसमी सब्ज़ियां भी उगाई जाती हैं। इंदर सिंह बताते हैं कि वे अपने खेतों में देसी बीजों का ही इस्तेमाल करने की कोशिश करते हैं। चाहे जानवरों का चारा हो या फिर साग-सब्जियों या फलों के बीज।
अपने सालाना टर्नओवर के बारे में पूछने पर वे हसंते हैं और कहते हैं, “पैसे का क्या है, कभी कम मिलता है कभी ज्यादा। पर हाँ, मेरे खेतों में पूरे गाँव से सबसे ज्यादा उपज होती है। पिछली बार, मैंने 3 एकड़ में धान लगाया था और 64 मन की उपज हुई। देसी किस्म थी और जैविक खेती से की। उसकी जो क्वालिटी है और बाकी लोगों की जो क्वालिटी है, उसमे ज़मीन-आसमान का फर्क है। तो मेरे लिए पैसे-वैसे से भी ज्यादा ये मायने रखता है कि मैं अपने घर में और बाकी लोगों को खाने के लिए कितना पौष्टिक अनाज दे रहा हूँ। आज भी सुबह से लेकर शाम तक अपने खेतों में कुछ न कुछ करते रहने वाले इंदर सिंह कहते हैं कि जैविक खेती करके वह कोई महान काम नहीं कर रहे हैं। वह जो कर रहे हैं उनके अपने लिए है। क्योंकि अगर वह केमिकल का इस्तेमाल करते तो शायद आज उनका परिवार इतना हष्ट-पुष्ट नहीं होता और न ही उनकी ज़मीन इतनी उपजाऊ होती। एक किसान की ज़िम्मेदारी है कि वह ज़मीन और प्रकृति को बिना नुकसान पहुंचाए, लोगों के लिए पौष्टिक खाना उगायें। इंदर सिंह सिद्धू और उनका पूरा परिवार, आज के इस आधुनिक दौर में सस्टेनेबिलिटी की मिसाल है।
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