Sunday, June 28, 2020

फैमली किसान बनाना अब वक्त का तकाजा

  • जैविक खेती को बढ़ावा देने वाले पद्मश्री बाबूलाल दाहिया का अनूठा सुझाव                        
  • फैमली किसान बनाने से जीवन में नहीं पड़ेगी फैमली डॉक्टर की जरूरत 


बिना रासायनिक खाद के जैविक पद्धति से उगाई गई फसल का द्रश्य। 


अरुण सिंह,पन्ना। जैविक खेती को बढ़ावा देने तथा परंपरागत देशी बीजों के संरक्षण हेतु अपना पूरा जीवन समर्पित करने वाले विंध्य क्षेत्र के कृषक पद्मश्री बाबूलाल दाहिया जी जैविक खेती और पर्यावरण संरक्षण के महत्व पर केंद्रित अपने अनुभव साझा करते रहते हैं। अभी हाल ही में उन्होंने फैमली डाक्टर की तर्ज पर फेमली किसान बनाने का अनूठा सुझाव दिया है, जो निश्चित ही विचारणीय है। इस सम्बन्ध में उनका द्रष्टिकोण व सुझाव यहाँ पर यथावत प्रस्तुत है।
 यदि बिकसित मनुष्य को हम 1 करोड़ वर्ष का मान लें तो 99 लाख 90 हजार वर्ष वह बिना खेती का रहा। खेती और पशु पालन का इतिहास पिछले 10 हजार वर्ष के इधर का ही है। और ब्यवस्थित खेती तो मात्र 28 सौ वर्ष के आस पास से जब मनुष्य ने लौह अयस्क की खोज कर ली। क्योँकि पुरातत्व में जितने भी मनुष्य के
प्रागेतिहासिक काल के पुरावशेष हैं वह सब  नदियों के किनारे बसने के हैं। लौह की खोज के पहले वह मैदान में कुआँ नहीं खोद सकता था ? इसलिए नदियों के किनारे रहता और उन्हीं का पानी पीता था। इसमे भी कोई दूसरी राय नहीं कि जितने भी पालतू पशु हैं, जितने भी अनाज हैं, उन्हें जंगल से खोज कर लाने वाले हमारे कृषक पूर्वज ही हैं। और मजे की बात यह है कि उन पशुओ, उन अनाजो की एक भी पुरखे पुरखिने अब उस जंगल में नहीं हैं। इसलिए उनका बचाना भी जरूरी है।
पर जिन लोमड़ी ,लकड़बग्घा ,शियार  को उनने पालतू नहीं बनाया वह आज भी जंगल मे ही बिचरण करते हैं। और उन्हें आज भी कोई बैज्ञानिक पालतू नहीं बना सकता। पर मैदान में बसने और कुओं का पानी पीकर लौह अयस्क के उपयोग से न सिर्फ तरह तरह के उपकरण बने जिससे लघु उद्द्योग ब्यापार में तरक्की हुई ,बल्कि लकड़ी के हल में लौह फाल लग जाने के कारण खेती की भी उन्नत हुई और हमारी निर्भरता जंगल के फल, फूल, कन्द आदि के बजाय कृषि पर ही निर्भर हो गई। लेकिन आज हम जिस कृषि की बात करते हैं वह हमारे पुरखो की कृषि नहीं बल्कि 1966 के पश्चात आई हरित क्रांति की कृषि है।

यह ऐसी कृषि है जो देश की जीडीपी तो खूब बढ़ाती है ? क्यों कि एक साथ 7-8 प्रकार के अलग - अलग सेठों को खुशहाल करती है एवं हरा - भरा खेत देख सभी की तबियत मस्त कर देती है। किन्तु किसान के हिस्से में उसी अनुपात में लाभ आता है जितना डेयरी की 10-12 लीटर दूध देने वाली भैस  के पडेरु के हिस्से में दूध। लेकिन जो उपभोक्ता उस अनाज को खा रहे हैं दर असल वह खाने लायक बचा ही नहीं ?  क्यो कि उसमे क्रमिक विकास में रसायनिक खाद, कीट नाशक, नीदा नाशक, आदि कई तरह का जहर शामिल हो चुका है। जो सब्जियां खाते हैं उनमें यह सब रसायन तो पड़े ही हैं किन्तु हर हप्ते वह अलग से भी रसायन स्नान कर के आप के पास तक आती है।
मूंग को इस चित्र में देख ही रहे हैं कि उसके हरे भरे खेत को किस प्रकार रसायन से सुखाकर हारबेष्टिग योग बनाया जाता है ? अस्तु जरूरी है कि जिस तरह आप अपना फैमली डाक्टर बनाते हैं उस तरह एक फेमली किसान भी बनायें जो आप को रसायन रहित शुध्द अनाज और विशुद्ध सब्जी दे सके। यकीन मानिये यदि आप ने फैमली किसान बना लिया तो फिर फैमली डॉक्टर की जरूरत कम ही पड़ेगी। किन्तु फिर भी झूर शंख नही बजेगा। उसके लिए कुछ अतिरिक्त ब्यय करना पड़ेगा। क्यों कि आप के उस फैमली किसान के भी मुँह पेट है, बाल बच्चे हैं। हरित क्रांति आने के पहले हर कर्मचारी, हर उपभोक्ता अपनी आमदनी का 50 प्रतिशत भोजन में ही खर्च करता था। और तब हम कृषकों के पूर्वज उन्हें विशुद्ध अनाज सब्जियां देते थे। पर आज जब वह उपभोक्ता अपनी आमदनी के 5 प्रतिशत में ही काम चला रहा है तो हम कृषक उन्हें कितना रसायन युक्त दे रहे हैं ? सब कुछ सामने है। इसलिए बीच का रास्ता अपनायें और अपनी आमदनी का 15 प्रतिशत खर्च करें ? जिससे किसान भी खुश और वह भी खुश।
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