Friday, October 9, 2020

हमने अंगुलिमाल तो पैदा किये पर बुद्ध कहाँ से लायेंगे ?


बेहद खतरनाक और हिंसा से भरे हत्यारे अंगुलिमाल की कहानी सभी ने सुनी होगी। यह कहानी लगभग ढाई हजार वर्ष पुरानी बुद्ध के समय की है। इतना लंबा वक्त गुजर जाने के बाद भी ऐसा प्रतीत होता है कि हम अंगुलिमाल की हिंसक वृत्ति से मुक्त नहीं हो पाये हैं। भगवान बुद्ध की प्रेम, करुणा और ध्यान की शिक्षा को हमने आत्मसात नहीं किया। यही वजह है कि आर्थिक विकास की दृष्टि से हम भले ही प्रगति कर ली हो लेकिन आत्मिक विकास की दृष्टि से हम आज भी वहीं  खड़े  नजर आ रहे हैं, जहां ढाई हजार वर्ष पूर्व अंगुलिमाल था। लेकिन अंगुलिमाल सौभाग्यशाली था कि उसे बुद्ध मिल गये और उसका आमूलचूल रूपांतरण हो गया। हिंसक शक्ति प्रेम और करुणा में परिवर्तित हो गई। पर हमारा यह दुर्भाग्य है कि गांव, कस्बों और शहरों तक हर कहीं अंगुलिमाल नजर आते हैं लेकिन बुद्ध नहीं। अब इन अंगुलिमालों का  रूपांतरण कैसे हो, कौन करें ?


ढाई हजार वर्ष पूर्व जो अंगुलिमाल था, वह घने जंगल में रहता था और जो कोई भी उस रास्ते से गुजरता वह उसका सिर काट कर उसके उंगलियों की माला अपने गले में पहन लेता था। लेकिन आज के अंगुलिमाल गांव, कस्बों और शहरों में रह रहे हैं और फरसा तथा कटी गर्दन लेकर सड़क पर चहल-कदमी करते नजर आते हैं। ताजी घटना उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड अंचल में आने वाले बांदा जिले की है। इस जिले के बबेरू कस्बे में शुक्रवार 9 अक्टूबर 20 की सुबह एक युवक ने अंगुलिमाल के चरित्र को जीवंत करते हुए अपनी ही पत्नी का फरसे से गला काट दिया। इतना ही नहीं वह कटे गले को एक हाथ से उठाकर और दूसरे हाथ में फरसा लेकर घर से पुलिस थाने की ओर चल पड़ा। दिनदहाड़े सुबह-सवेरे जिसने भी यह दिल दहला देने वाला दृश्य देखा, उसके रोंगटे खड़े हो गये। बबेरू थाना कोतवाली के निरीक्षक जयश्याम शुक्ला का कहना है घटना सुबह 7:30 बजे की है। हत्या के आरोपी पति को गिरफ्तार कर लिया गया है। श्री शुक्ला के मुताबिक आरोपी ने पत्नी की हत्या अवैध संबंधों के शक में की है। 

अब यहां सवाल फिर उठता है कि अवैध संबंध के लिए क्या सिर्फ स्त्री ही दोषी है, पुरुष का इसमें कोई रोल नहीं होता। क्या अकेली स्त्री किसी पुरुष से संबंध बना सकती है ? तो फिर स्त्री की ही गर्दन क्यों कटती है ? अवैध संबंधों और दुष्कर्म के कितने मामले रोज प्रकाश में आते हैं, उनमें क्या होता है। स्त्री को ही जलालत झेलनी पड़ती है, उसकी इज्जत, प्रतिष्ठा और सम्मान सब कुछ तहस-नहस हो जाता है। जबकि पुरुष को अपने कृत्यों का पछतावा तक नहीं होता, वह अपने बचाव में कोई न कोई तर्क गढ़ लेता है और पूरा दोस स्त्री पर ही मढ़ने का प्रयास करता है। क्या हमारे समाज में स्त्री को जैसा प्रीतिकर लगे वैसा जीने का हक नहीं है, क्या वह आज भी पुरुषों की गुलाम है ? तो फिर हमें बड़ी-बड़ी और ऊंची शास्त्रीय बातें नहीं करना चाहिये। हमें यह स्वीकारना चाहिये की प्रेम, करुणा और बराबरी की शिक्षा हमारे लिए नहीं, हम तो अंगुलिमाल के पोषक हैं बुद्ध के नहीं।

@अरुण सिंह(पत्रकार), पन्ना   

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