Wednesday, December 23, 2020

पानी उपजय हाट बिकाय

तालाब में लगी फसल से तोड़े गये सिंघाड़ों के साथ कृषक। ( फोटो इंटरनेट से साभार )

।। बाबूलाल दाहिया ।।

  यह जटिल पहेली किसी अनाम रचना काऱ द्वारा सिघाड़ा पर रची गई थी  कि,

                  पानी उपजय हाट बिकाय

                   सुआ आबा सोय गा,

                   गिल्ली आई रोय गय

                    मनई आबा टोर गा।

रचना कार भले ही अनाम रहा हो, पर उसकी रचनाशीलता इस सिघाड़ा पर कितनी सटीक थी कि जिस काम को उड़ने वाला पखेरू तोता और पेड़ की पतली से पतली डाल में चढ़ कर फल खा जाने वाली गिलहरी नहीं कर सकी, उसे इस मनुष्य ने कर दिखाया।

सिघाड़ा की कार्तिक से पूष के मनीने तक बहार सी रहती है। जब आप को शहर के हर गली हर चौराहे में सिघाड़ा बेचती महिलाएं मिल जायेंगी। इसके उगाने से लेकर फल आने तक की पूरी तकनीक है, जिसे किसी तलाब, पोखर में उगा कर ही पूरा किया जा सकता है। तब फसल तैयार होती है, साथ ही इसमें पूरे परिवार का सहयोग भी अपेक्षित है।

सचमुच तालाब में नैसर्गिक रूप में जम कर फली सिघाड़ा जिसे खा पाने में तोता और गिलहरी नाकाम थे उसे किस तकनीक से पानी में पहुच, न सिर्फ  मनुष्य ने तोड़ा बल्कि उसकी खेती भी करने लगा ?  वह कार्य कोई आश्चर्य से कम नही है। शुरू - शुरू में उसे उगाने, फिर डोडा बनाने और उसे पानी में तैरने तक कितनी प्रक्रिया से गुजरना पड़ा होगा।  उस आदिम पुरखे और उसकी पीढ़ियों को ? तब कहीं इस सिघाड़ा को तोड़ पाया होगा जो हमे आज सहज उपलब्ध है।

कार्तिक से पूष तक प्राय: हर तलाब में छोटी नाव जिसे डोडा कहा जाता है, उसमें सवार और बांस के सहारे उसे चलाते हुए इस कष्ट साध्य काम को अंजाम देते आप को सिघाड़ा उगाने वाले कृषक मिल जायेंगे, जिन्हें यहां सिंगरहा या रैकवार नाम से जाना जाता है। देखने की बात तो यह भी है कि किस तरह विकास की धुरी ग्रामीण उद्दमियों के हाथ में थी ? और  किस तरह हमारे देश में यह सब जातीय रोजगार विकसित थे, जिनमें गाँव के संसाधन से ही पीढ़ी दर पीढ़ी अजीविका चलती रहती थी, यह एक मिसाल है।

सिघाड़ा की खेती के लिए सिंगरहा बीज हेतु पका हुआ पुष्ट फल चुनते हैं। जिसे जेठ के महींने में किसी पानी भरे तलाब में अंकुरण हेतु डाल देते हैं। फिर अंकुरित हो बेल बढ़ने और बीस जून के आस पास बारिस होने के बाद पोखरों में पानी भरने पर उसे उस तालाब से निकाल पोखरों के पानी में लगा देते हैं।

 इस प्रक्रिया में उसकी बेल को पानी के ऊपर फैला कर जड़ को पैर से दबाते जाते हैं। फिर यह इतनी तेजी से बढ़ती है कि तालाब में जितना भी पानी भरे पर सिघाड़ा उसके ऊपर ही हो जाता है और उसकी बेल सारे तालाब में फैल जाती है। बीच - बीच में सिंगरहा डोडा में चढ़ कर रोग और कीड़े दिखने पर दबाई भी डालते हैं। 

कार्तिक में सिघाड़ा आना शुरू हो जाता है तो इनके काम में तत्परता आ जाती है। तब पति तो दिन भर डोडे में चढा सिघाड़ा तोड़ता है और पत्नी उसे बड़े भोर  में उठ कर हंडी में पका फिर बेचने के लिए बाजार ले जाती है। इस तरह इतनी मेहनत से कमाई गई सिघाड़ा बिक्री की अधिकांश राशि सिंगरहा उन तालाब मालिक को दे देते हैं, जिनसे वे ठेके पर तलाब लेते हैं। और रात दिन मेहनत के बाद भी उनकी आर्थिक स्थिति यथावत ही रही आती है।

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