Wednesday, February 23, 2022

दो प्राचीन भारतीय भाषाओं की प्राचीन लिपियाँ : बाबूलाल दाहिया

     

बाबूलाल दाहिया। 

      

मित्रों !  चाहे क्षेत्र जो भी रहा हो पर जब कोई भी बालक जन्म लेता है तो हर क्षेत्र में पैदा होने वाले बालकों के मुह से एक प्रकार की ही रोने की आवाज निकलती है। वह है ( के हाँ- के हाँ -के हाँ) क्योकि कि यह प्रकृति प्रदत्त ध्वनि है, जो गुण सूत्र में मौजूद रहती है। किन्तु दो साल बाद वही बालक मातृ भाषा सीखने लगता है और उस परिवार की जो भी भाषा होती है उसमे पारंगत हो जाता है।

यही स्थिति लिपि की भी होती  है कि जो भी लिपि उसे लिखने के लिए सिखा दी जायगी वह उसी में लिखने लगेगा। इसलिए सिद्ध है कि यह भाषा और लिपि प्रकृति प्रदत्त नही हैं बल्कि मनुष्य समुदाय का अर्जित ज्ञान है?

भीम बैठका बकस्वाहा आदि के 20 से 30 हजार वर्ष  पुराने आदिम मानव के शैल चित्रों से तो यह भी सिद्ध है कि "शुरू शुरू में जब भाषा और लिपि नहीं थी तब मनुष्य का काम चित्रों एवं इशारों से ही चलता रहा होगा?"

ऐसा लगता है कि गुफा मानव का परिवार प्रमुख  पत्थरों में हिरण, खरगोश, मछली, सुअर आदि य फलों  के कुछ अनगढ़ चित्र बना कर रखता रहा होगा और फिर परिवार के सदस्यों से इशारे से पूछता  कि "आज किसका गोश्त य कौंन सा फल खाना है ?" फिर इसारे में य अंगुली रख कर जिस पर भी आम सहमति बनती उसी के मारने फसाने य तोड़ने वाले तत्कालीन उपकरण लेकर सभी सदस्य निकल पड़ते रहे होंगे।

किन्तु कालांतर में जब भाषा विकसित हुई होगी तो उन्ही जानवरों य फल फूलों के नाम के प्रथम अच्छर को एक मानक आकृति दी गई होगी जिससे लिपि का निर्माण एवं विकास हुआ।

मित्रों आज हमारे 15 -16 सौ किलो मीटर लम्बे चौड़े इस विस्तृत देश मे अनेक लिपियाँ हैं, जिनमे  उत्तर पश्चिम य पूर्व में गुरुमुखी, सिंधी, बंगला है तो दक्षिण भारत मे भी द्रविण बोलियों तमिल, तेलगू, मलयालम आदि की लिपियाँ पाई जाती हैं ।


पर इस उत्तर भारत य समूचे देश में सब से अधिक समृद्ध उपयोग वाली लिपि आज देव नागरी ही है। जिसमें अनेक प्राचीन ग्रन्थ लिखे गए हैं। उत्तर और दक्षिण की लिपियों में बुनियादी अन्तर यह है कि उत्तर भारत की लिपियाँ लचीले भोज पत्र में लिख कर विकसित हुई हैं। इसलिए वह रेखाक्षर वाली हैं पर दक्षिण की लिपियों का विकास कड़क ताड़ पत्र में हुआ है इसलिए वह गोलाक्षर हैं। क्योकि रेखा खीचने से ताड़ पत्र  फट सकता था।

आज हमारे वेद, पुराण, महाभारत आदि सभी संस्कृत ग्रन्थ देवनागरी लिपि में ही हैं। क्योकि यह ऐसी लिपि है जिसमें कठिन से कठिन संस्कृत के कटाक्षर भी लिखे जा सकते हैं। पर इस देव नागरी का विकास 6वीं सदी में ही हुआ है। इसके पहले वेद तो मौखिक परम्परा में थे, इसलिए उन्हें (श्रुति) भी कहा जाता है। किन्तु भारी भरकम 18 पुराण और महाभारत आदि 6वीं सदी के पहले किस लिपि में थे? यह तो संस्कृत के विद्वान ही बता सकते हैं?

लेकिन  देव नागरी के पहले भी उत्तर भारत मे दो लिपियाँ अस्तित्व में थी जो चित्रों में दिखाई जा रही हैं। इनमें -  ( ब्रह्मी ) लिपि एवं  ( हो ) लिपि है।


ब्रह्मी लिपि  एक ऐसी तात्कालीन लिपि थी जो पाली भाषा की मसहूर लिपि मानी जाती है। और देव नागरी आने के पहले साँची भरहुत जैसे अनेक बौद्ध स्तूपों में प्रयुक्त है। यह पत्थर में अक्षरों को उत्कीर्ण करने के लिए उपयुक्त लिपि थी।

किन्तु  दूसरी लिपि  मोहन जोदड़ो हड़प्पा में बसने वालों य भीम बैठका के शैल चित्र बनाने वालों के वंशजो की ( हो) लिपि मानी जाती है। जो उत्तर पूर्वी भारत के आष्ट्रिक मुण्डा कोलारियन समुदाय की लिपि है। (हो ) का आशय कोलारियन भाषा मे ( मनुष्य ) होता है।

बिगत 3-4 माह से कोल जन जाति के( विविध सांस्कृतिक पक्ष के शोध सर्वेक्षण ) के समय न सिर्फ मुझे यह (हो लिपि) मिली है बल्कि कोलो की एक प्राचीन भाषा भी। लेकिन पाली की ब्रह्मी लिपि और कोलारियन लिपि में  कितनी समानता और कितना अन्तर है? यह बहुत बड़े शोध का विषय है?

मैं उन दोनों लिपियों को देव नागरी लिपि के साथ प्रदर्शित कर रहा हूं जिसमे क्रमांक 1 ब्रह्मी है और क्रमांक 2 - कोलो की - हो लिपि।

00000


No comments:

Post a Comment