।। बाबूलाल दाहिया ।।
दो दिन पहले कजलियों का त्यौहार था और अब शीघ्र ही हरछठ ( हलषष्ठी ) भी आयेगा। क्योंकि वंशकार समुदाय अपना कुड़वारा बनाने का काम युद्ध स्तर पर शुरू कर दिया है। कुड़वारा वस्तुतः एक साथ पूजा में उपयुक्त 7 छोटी-छोटी बाँस की टोकनी का एक समूह होता है, जिनमें भुने हुए 7 अनाजों का लावा, महुआ की डोभरी एवं भैंस का दही रखकर हरछठ के दिन महिलाएं पूजा करती हैं।
हमारे देश में अनेक धर्म और उन धर्मो के अन्दर अनेक जातियां है। कुछ जातियों के नाम तो उनके जातीय कर्मो के कारण ही पड़ गए थे, जैसे सोने का कार्य करने वाली जाति का नाम स्वर्णकार, लोहे का काम करने वाली जाति लोहार, घड़ा बनाने वाली कुम्भकार, चमड़े का कार्य करने वाली चर्मकार, तेल निकालने वाली तेली एवं कपड़े बुनने वाली जाति तंतुवाय या बुनकर आदि - आदि। पर कुछ जातियां ऐसी भी हैं जिनका नाम पेड़ पौधों बनष्पतियों से सम्बंधित भी हैं। ऐसी दो जातियां हमारे विन्ध्य क्षेत्र में मसहूर हैं। वह है खैर नामक पेड़ से कत्था बनाने वाली जाति खैरवार और बांस के विभिन्न प्रकार के उत्पाद बनाने वाली वंशकार जाति।
आज से 40-45 साल पहले जब मैं बघेली का शब्दकोष तैयार कर रहा था, तो मुझे इस तरह के कार्य करने वाले तमाम लोगों के कार्य स्थल में जाना पड़ा था। मैंने घूम- घूम कर उनके उपकरणों और तैयार सामग्रियों का जब सर्वेक्षण जैसा काम किया था तो अकेले वंशकार जाति द्वारा निर्मित ही 30-35 प्रकार के बांस के उत्पाद या बर्तन मिले थे। आप किसी सामान्य वंशकार का घर देखिए तो गाँव से अलग किसी किनारे के भाग में मात्र एक दो झोपड़ा सामने खुली हुई हवादार कार्यशाला और साधारण सा रहन सहन। कुछ रखे हुए बांस, कुछ उसके बने अधबने बर्तन और आस-पास फैला बांस का छीलन, यही वंशकार के घर की पहचान है। किन्तु जब एक कला पारखी की दृष्टि से उनके द्वारा निर्मित वस्तुओं में कलात्मकता देखिये, तो आश्चर्य चकित हुए बिना नही रहेंगे।
अगर हम यहां की सामुदायिक संरचना देखें, तो हमारे यहां चार तरह का समुदाय था। 1- शासक वर्ग, 2 - ब्यापारी वर्ग 3- वस्तु निर्माता वर्ग और 4- इह लोक में रहकर भी हमेशा पूर्व जन्म, परलोकवाद का सब्ज बाग दिखाने वाला पुरोहित वर्ग। पर अगर गहराई से देखा जाय तो देश के समस्त विकास की धुरी ही इन तमाम वस्तु निर्माता शिल्पी और मेहनतकस जातियों के हाथ में रही। एक तरफ तो वह बिना किसी बाहरी तकनीकी सुबिधाओं के खुद वैज्ञानिक या इंजीनियर की दोहरी भूमिका में अपने उपकरण तैयार करते थे, तो दूसरी तरफ शिल्पी की भूमिका में अपनी कलात्मकता पूर्ण वस्तुएं भी बनाते थे। पर जैसा सम्मान इन तमाम शिल्पी जातियों को मिलना चाहिए वह कभी नहीं मिला ? यही कारण है कि भारत आज भी इंजीनियरिंग के मामले में सभी विकासशील देशों से पीछे है।
काश ! गांव के इन तमाम रिसर्च करने वालों को इनकी कला का सही समय पर सही सम्मान मिला होता तो शायद आज भारत इंजीनियरिंग में दुनिया का सिरमौर होता। अलबत्ता प्रधान मुख्य वन संरक्षक श्री बी.बी. सिंह जी जब मध्यप्रदेश बैम्बू मिशन के डायरेक्टर थे, तब अवश्य बाँस की अनेक वस्तुएं बनाने के प्रशिक्षण आयोजित हुए थे। एक प्रशिक्षण शाला सतना के सोनवर्षा में भी थी, जहां बाँस की सैकड़ों प्रकार की वस्तुएं बनती थीं।
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