।। बाबूलाल दाहिया ।।
भारत का जो मूल निवासी,
वही आदिवासी कहलाय।
हिन्दू मुस्लिम और इसाई,
सबसे ही वह अलग दिखाय।।
पूरी तरह प्रकृति पूजक है,
वही पुराना उसका धर्म।
रहे घने जंगल के भीतर,
प्रकृति सुरक्षा का बस कर्म।।
जल जंगल जमीन का सच्चा,
संरक्षक है यही समाज।
उतनी ही अधिग्रहण करे वह,
जितनी उसे जरूरत आज।।
धरती के सीमित संसाधन,
का वह करता है उपयोग।
रहे यथारथ जीव जगत सब,
अवधारणा समझ लें लोग।।
जंगल उसके लिए सदा था,
साझे का एक भोजन कोस।
लेता सिर्फ जरूरत भरका,
रखता उसे पाल अरु पोस।।
सभी जगह थी सामूहिकता,
पूजा अरु अखेट जो कर्म।
गीत और संगीत नृत्य सब,
दिखे एकता का ही मर्म।।
जहाँ निवास आदिवासी का,
वे वन हरे भरे हरिआँय।
गैर आदिवासी पग धरतय,
सभी ओर बस ठूठ दिखाय ।।
नही गया दिल्ली कलकत्ता,
कभी किसी को लूटन हेत।
रहा मस्त अपने जंगल में,
घूम नदी वन पर्वत खेत।।
मची हुई उसके संसाधन,
की अब सभी ओर से लूट।
वन पहाड़ सब में निगाह है,
कोई नही रहे हैं छूट।।
बड़े बड़े बंधान बध रहे,
जहाँ रहा नैसर्गिक बास।
धन कुबेर सब लूट रहे हैं,
जगह रही जो उनकी खास।।
ठगा ठगा महसूस कर रहा,
आज आदिवासी समुदाय।
उसका जो असली संसाधन।
उसको कोइ न रहा बचाय।।
नाम रखे अब कुछ वनवासी,
आदिवासियत को ही छीन।
बांध रहे अपने खूंटे में,
चालबाज जो परम प्रबीन।।
कुछ तो मूत रहे सिर ऊपर,
अपना रुतबा रहे बघार।
जैसे लोकतंत्र में उसका,
नही कोई मौलिक अधिकार।।
जहाँ विरोध किया थोड़ा भी,
नाम नक्सली तब पड़ जाय।
अपने ही नैसर्गिक भू में,
दमन चक्र फिर पड़े दिखाय।।
तरह तरह की विकट समस्या।
आज दिख रही चारों ओर।
बचा रहे उसका संसाधन,
ऐसा कोइ न दिखता ठौर।।
नव अगस्त उसका यह दिन है,
इससे हम सब करें बिचार।
भारत भू के प्रथम नागरिक,
के क्या हैं समझें अधिकार।।
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