Saturday, September 14, 2024

हिन्दी दिवस : हिन्दी की उदारता ही उसकी ताकत है


 ।। बाबूलाल दाहिया ।।

मुझे भोपाल के एक होटल से रानी कमला पति स्टेशन आना था।आटो वाले ने पूछा तो रानी कमलापति नाम ही भूल गया अस्तु जल्दी में कह दिया (हबीब गंज) वह मुस्लिम ड्राइवर सुधारते हुए कहा "अच्छा रानी कमलापति स्टेशन ?" मैंने  " कहा हां।" दरअसल उसे रोज सवारी लाते लेजाते रानी कमलापति रट गया होगा पर मेरे जुवान में वही पुराना ही चढ़ा था। इसी तरह मैं प्रयाग राज को भी अक्सर इलाहाबाद कहने की भूल कर बैठता हूं। 

कुछ वर्षों से शहरों के नाम बदलने की मुहिम तो चली ही थी पर अब बोल चाल में आए फारसी और अंग्रेजी के नामों पर भी कुछ लोग अपनी संकीर्ण मानसिकता थोपने लगे हैं। पर उनसे कौन कहे कि जब हिन्दू, हिन्दुस्तान ही विदेशियों का दिया हुआ नाम है तो हिन्दुओं की भाषा हिन्दी में सुद्धता ढूढ़ना भी ( फूस में फांस ढूढ़ना ) जैसे मुहावरे को चरितार्थ करना ही है। क्योकि उसके बुनियाद में ही सम्मिश्रण है।

हमने गांधी जी के भाषण पढ़े हैं। नेहरू जी के भाषण निजदीक से सुने हैं, और उनकी पुस्तक भारत एक खोज भी पढ़ा है। पर उनके भाषण और लेखन में हिन्दी नही हिन्दुस्तानी रहा करती थी। उन भाषणों में हिन्दी उर्दू का अन्तर न के बराबर था। लगता है आजादी के पश्चात ही हिन्दी अधिक ( संस्कृत निष्ठ ) होकर अपना अलग रूप गढ़ती चली गई और उसकी बड़ी बहन उर्दू भी अधिक (फारसी निष्ठ) होती गई।

पर यकीन मानिए हिन्दी की अपनी ताकत उसकी उदारता ही रही है। जो शब्द सहज, सरल, बोधगम्म बोलचाल में स्वीकार्य हैं चाहे जिस भाषा के हो हिन्दी ने आत्मसात किया अस्तु भाषा लोचदार य मुहावरे दार बनी। उसने यह परहेज नही किया कि वह शब्द फारसी के हैं य अंग्रेजी के। भाषा और लिपि दोनों यूं भी मनुष्य का नैसर्गिक नही अर्जित ज्ञान है। मैं गांव में रहता हूं और यह अनुभव किया हूं कि लोग सरल सहज ग्राह शब्दो को तो अपना लेते हैं पर कठिन को छोड़ देते हैं। कुछ अटपटे शब्दों के बजाय उसके गुण धर्मों के अनुसार नए नाम भी रख देते है। मोटर साइकिल को फटफटिया य आइपोमियाँ का नाम बेसरम रखना उनके उसी मानसिकता के परिचायक हैं।

वे रेल के इंतजार में बैठे हों तो यह कभी भी नही कहते कि " आज लौह पथगामनी बिलम्ब से आएगी।" बल्कि यह कहना अधिक उपयुक्त मानते हैं कि  " ट्रेनलेट है।" जब कि इस वाक्य में 66% इंग्लिश और सिर्फ ( है ) भर हिन्दी का क्रिया पद है। पर एक ही अक्षर 66% इंग्लिश को हिंदी बना देता है। हमें चाहिए कि अपनी हिन्दी को इसी प्रकार समर्थवान रखें। शुरू- शुरू में तो भाषा के रूप में  मनुष्य के मात्र आंखों के इशारे य हाथ के संकेत ही रहे होंगे। ठीक उसी प्रकार जैसे मूक बधिर लोग सब कुछ समझ लेते हैं। यदि कुछ शब्द मुँह से फूटते भी रहे होंगे तो उसी तरह जैसे भूखा बछड़ा (ओ-- मां ---? ) की लम्बी आवाज मुँह से निकालता है और उत्तर में गाय भी हुंकार भरती है। पर तब ग्वाला य किसान भी उनकी भाषा समझ जाता है कि "बछड़ा भूखा है और गाय उसे दूध पिलाना चाहती है।"

भाषा मात्र उर्दू, हिन्दी, संस्कृत य अंग्रेजी भर नही है। प्राचीन समय में देश में सैकड़ों ऐसी बोलियां थी जो एक दूसरे से अलग-अलग थीं और हर एक समुदाय की अपने -अपने सीमित कार्य क्षेत्र के जरूरत की भाषा ही हुआ करती थीं। क्योकि तब संचार के साधन आज जैसे नही थे और विवाह सम्बन्ध आदि 50-60 किलो मीटर के दायरे में ही होते थे। अस्तु उस सीमित क्षेत्र की लोक ब्यौहार की एक अलग तरह की भाषा ही बन जाती थी। इसलिए भाषा कोई भी हो महत्वपूर्ण उसके भाव होते हैं। 

2017 की बात है जब हमारा 5 सदस्यीय दल 40 जिलों के परम्परागत बीज बचाओ यात्रा अभियान में था और बैतूल जिले के एक गांव में रुका था तो हमें ठहरा देख वहां का कोरकू समुदाय रात्रि में हमारे सम्मान में एक लोक नृत्य का कार्यक्रम रखा। कोरकू आदिवासियों की अपनी एक अलग बोली है जिसे वहां बसने वाले अन्य समुदाय यादव, रहांगडाले , ठाकरे, विसेंन आदि भी नही समझते। जब उनके द्वारा गाए गए गीत का अर्थ हमने एक कोरकू टीचर से पूछा तो गीत के भाव को समझ हम खुद ही आश्चर्य चकित रह गए। क्योकि वह गीत कोरकू युवकों को सम्बोधित था जिसमें कहा गया था कि-- " देखो रे ! आज हमारे बीच यह मेहमान आए हैं, अस्तु उनकी सेवा और सुबिधा में कोई कमी मत रखना?" तो यह थी अपढ़ कोरकू लोगों की हमारे प्रति मेहमानवाजी की बिचार अभिब्यक्ति।

हमारी बोली बघेली है और पड़ोसी क्षेत्र के जिलों की बुन्देली। परन्तु न तो बुन्देली को बुंदेला राजपूत बनारस य मिर्जापुर से बुन्देल खण्ड में लाए थे न, ही,बघेल राजा गुजरात से बघेली को लाए होंगे। क्योकि उनके पहले भी बुन्देलखण्ड में चन्देल, खंगार, लोधी, भर एवं गोड़ राजवंश शासन करते थे और बघेलखण्ड में कोल, वेनवंशी, गोंड़, बालन्द आदि राजा हुए थे। इसलिए सिद्ध  है कि यह वर्तमान बघेली बुन्देली पहले भी किसी न किसी लोक ब्यौहार के भाषा के रूप में विकसित रही होंगीं।

पिछले वर्ष जब मैं कोल जनजाति पर शोध सर्वेक्षण कर रहा था तो कोरकू की तरह ही कोल समुदाय के भी एक अलग ( हो ) नामक भाषा के कुछ संकेत मिले थे। ( हो) का अर्थ उस कोलारियन भाषा में (मनुष्य) होता है। हो सकता है प्राचीन बघेली कोलों की (हो) भाषा से ही विकसित हुई हो जो अन्य समुदायों के यहां बस जाने के कारण बदल गई हो? पर उसके अवशेष आज भी हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू व संस्कृत के परिधि से बाहर ( राउत, रउताइन, गउटिया, गउटिन ) आदि सम्मान जनक पद एवं उनका जोहार नामक अभिवादन लोक ब्यौहार में मौजूद हैं।

शहर में रहने वाले किसी ब्यक्ति से यदि पेड़ों के नाम पूछें जाँय तो वह 20-25 नाम बताकर चुप हो जायगा। परन्तु यहां के कोल, गोंड, भुमिया एवं बैगा आदिवासी एक सांस में ही सैकड़ों नाम बता देंगे। इसलिए सिद्ध है कि  पेड़- पौधों, वनस्पतियों ,नदियों पहाड़ों के रखे गए नाम यहां के प्राचीन निवासियों के ही रहे होंगे। परन्तु बाद में पढ़े लिखे लोग उसी प्रकार  प्रलेखी करण कर के उन्हें अपना बना लिए होंगे जैसे हमारे पास संरक्षित 200 प्रकार की परम्परागत धानों के नाम तो किसानों के रखे हुए हैं, पर आज वह हमारे पास लिपिबद्ध हैं तो लोग हमारी मानने लगे हैं।

इसलिए वक्त का तकाजा है कि भाषा बिचार अभिब्यक्ति का माध्यम ही रहे पूजा की वस्तु नही जो देवालय में सजाकर रख दी जाय। क्योकि जैसे- जैसे संचार का दायरा बढ़ता है भाषा में भी एक रूपता आती जाती है।

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Thursday, September 12, 2024

पन्ना में गरीब किसान को मिला 32.80 कैरेट वजन का दुर्लभ हीरा

  •  इस नायाब हीरे की अनुमानित कीमत दो से ढाई करोड़ रुपये 
  •  उथली खदानों से प्राप्त हुआ अब तक का यह तीसरा बड़ा हीरा 

कलेक्ट्रेट स्थित हीरा कार्यालय में हीरा धारक स्वामीदीन पाल प्राप्त हुए हीरे को दिखते हुए। 

।। अरुण सिंह ।।

पन्ना। देश और दुनियां में बेशकीमती हीरों के लिए प्रसिद्ध मध्यप्रदेश के पन्ना जिले में आज एक गरीब मजदूर को सरकोहा गाँव की उथली हीरा खदान में 32.80 कैरेट वजन का दुर्लभ बेशकीमती हीरा मिला है। जेम क्वालिटी वाले इस हीरे की अनुमानित कीमत करोड़ों में आंकी जा रही है। हीरा धारक स्वामीदीन पाल आज अपने परिवार के साथ जिला मुख्यालय में संयुक्त कलेक्ट्रेट स्थित हीरा कार्यालय पहुंचा और हीरे का वजन करवाकर उसे विधिवत हीरा कार्यालय में जमा करा दिया है। 

हीरा अधिकारी रवि पटेल ने बताया कि हीरा धारक स्वामीदीन पाल ने हीरा कार्यालय से पट्टा बनवाकर करीब चार माह पूर्व खदान लगाई थी। स्वामीदीन खेती-किसानी व मजदूरी करके अपना और अपने परिवार का भरण पोषण करता था, इसके साथ ही हीरे की खदान भी लगाया करता था। इस भाग्यशाली खेतिहर मजदूर ने बताया कि वह सरकोहा गाँव में स्थित खुद की जमीन में चार माह पूर्व गर्मियों में हीरा खदान का पट्टा बनवाकर खुदाई शुरू की थी। उसे विश्वास था कि उसे बड़ा हीरा जरूर मिलेगा और आज दोपहर लगभग 12 बजे जब वह हीरा धारित चाल की धुलाई कर रहा था, उसी समय उसे यह हीरा मिला। इतना बड़ा बेशकीमती हीरा मिलने के बाद से स्वामीदीन और उसका परिवार बेहद खुश है। उसका कहना है कि अब तक हमने कठिन जिंदगी जी है, हीरा मिलने के बाद सारे कष्ट व परेशानी दूर हो जाएगी। 



हीरा अधिकारी रवि पटेल का कहना है कि जेम क्वालिटी का यह बेहद दुर्लभ हीरा है, जिसकी बाजार में अच्छी डिमांड होती है। इस हीरे को आगामी हीरा नीलामी में बिक्री के लिए रखा जाएगा। अनुमानित कीमत पूंछे जाने पर आपने बताया कि यह दो से ढाई करोड़ रुपये का होना चाहिए। हीरा अधिकारी के मुताबिक बीते 5 सालों में पन्ना की उथली हीरा खदानों से प्राप्त हीरों में यह सबसे बड़ा हीरा है, जो आयोजित होने वाली नीलामी में आकर्षण का केंद्र रहेगा। वहीं खेतिहर मजदूर को बड़ा हीरा मिलने पर पन्ना कलेक्टर सुरेश कुमार ने भी खुशी का इजहार करते हुए बताया कि ग्राम सरकोहा में गरीब किसान स्वामीदीन पाल को उथली हीरा खदान में 32.80 कैरेट का हीरा प्राप्त हुआ है, जिसे आज पन्ना हीरा कार्यालय में जमा कराया गया है। 

पन्ना की उथली खदानों से प्राप्त अब तक का यह तीसरा बड़ा हीरा

 म.प्र. के पन्ना जिले की रत्नगर्भा धरती में उथली खदानों से कई दुर्लभ व नायाब हीरे मिल चुके हैं। अब तक का सबसे बड़ा हीरा तक़रीबन 62 वर्ष पूर्व 15 अक्टूबर 1961 को महुआटोला की उथली हीरा खदान से रसूल मोहम्मद को 44.55 कैरेट वजन वाला जेम क्वालिटी का हीरा मिला था, जो अब तक का सबसे बड़ा हीरा है। इसके बाद वर्ष 2018 में मोतीलाल प्रजापति को 42.59 कैरेट वजन का हीरा मिला था। यह हीरा नीलामी में 6 लाख रू. प्रति कैरेट की दर से 2 करोड़ 55 लाख रू. में बिका, जिसे  झांसी उ.प्र. के निवासी राहुल अग्रवाल ने खरीदा था। वर्ष 2018 में मोतीलाल प्रजापति को मिले नायाब हीरे के बाद यह तीसरा बड़ा हीरा है जो स्वामीदीन पाल को आज सरकोहा की खदान में मिला।  



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Wednesday, September 11, 2024

कितनी खूबसूरत लगती है काकुन की बालें ?

  • खेत में काकुन के दानों को चुगने वाली एक चिड़िया की मार्मिक लोककथा ! 

      

    

।। बाबूलाल दाहिया ।।

जी हां प्रकृति ने काकुन को इस प्रकार मात्र डेढ़ माह की फसल बनाया है कि कितना भी पानी गिरे इसका पका हुआ दाना कभी खराब नहीं होता। क्योंकि यह बरसात के झड़ी के बीच ही हर साल पकता है। शायद इसीलिए अपने को जल रोधी बना लिया है। 

पक जाने पर किसान इसकी बाल को पकड़-पकड़ काट लेते हैं और बाद में जुताई कर देने से पौधा सड़कर खाद बन जाता है। और फिर उसी खेत में चने या  गेहूं की फसल बो देते हैं। जब काकुन में दाने आ जाते हैं तो यह अपनी खूबसूरती बिखेर देता है, जिसे देख यही कहा जा सकता है।          

   काकुन की दिखने लगी,

            सुघर सलोनी बाल।

   खा खा कर अब होंयगी,

            चिड़ियां सब खुशहाल।।

हमारे लोक साहित्य में काकुन के दानों को चुगने वाली एक चिड़िया की बड़ी ही ह्रदय को छू लेने वाली मार्मिक लोककथा है। उस बघेली लोककथा के अनुसार एक चिड़िया किसी भांट के खेत में काकुन के दानें चुगने जाती है और वह उसे पकड़ कर घर ले जा रहा होता है। परन्तु उसे जो भी रास्ते में मिलता उससे वह गुहार लगाते हुए कहती कि -

ए गइल के चलबइया भइया ?

मैं भांट कय खायव काकुन,

मोहि भाँट धरे लइजाय।

गंगा तीर बसेरा,

मोर मरिहैं रोय गदेला।।

रट चूं- चूं।

उसे अपनी जान की उतनी चिंता नहीं थी, जितनी अपने दाने चुग्गे के इंतजार में पाल में बैठे नोनिहालों की। रास्ते से घोड़े के सवार, ऊंट के असवार सभी निकले पर किसी ने उसे नही छुड़ाया।  

अंत में उसी रास्ते हाथी में सवार वहां के राजा निकले। चिड़िया ने उनसे भी गुहार लगाई कि,

ओ हाथी के चढ़बइया भइया ?

और उपरोक्त वही अपने बच्चों वाली बात दुहराई। राजा को चिड़िया पर दया आ गई। उनने भाँट को कुछ रुपये देकर उससे चिड़िया ले ली और उसे मुक्त कर दिया, जिससे वह अपने गदेलों (बच्चों ) के पास चली गई।

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Sunday, September 8, 2024

अनूठी पुस्तक 'दि गाॅस्पेल ऑफ़ रामकृष्ण'

श्री रामकृष्ण परमहंस जी के शिष्य 'महेंद्रनाथ' जिन्होंने यह पुस्तक लिखी। 

छठवें नंबर के लिए मेरी पसंद एक अद्भुत आदमी की पुस्तक है। वे अपने आप को 'एम' नाम से पुकारते थे। मुझे उनका असली नाम मालूम है, लेकिन उन्होंने कभी भी किसी को अपना असली नाम मालूम नहीं होने दिया। उनका नाम है महेंद्रनाथ। वे एक बंगाली थे, रामकृष्ण के शिष्य थे। 

महेंद्रनाथ अनेक वर्षों तक रामकृष्ण के चरणों में बैठे, और अपने सद्गुरु के आस-पास जो कुछ भी घटित हो रहा था, उसे लिखते रहे। पुस्तक का नाम है : 'दि गाॅस्पेल ऑफ़ रामकृष्ण'--जिसे 'एम' ने लिखा है। वे कभी भी अपने का खुलासा करना नहीं चाहते थें, वे अनाम बने रहना चाहते थे। यही एक सच्चे शिष्य का ढंग है। उन्होंने अपने आप को पूरी तरह से मिटा डाला था। 

तुम्हें जान कर हैरानी होगी कि जिस दिन रामकृष्ण की मृत्यु हुई, उसी दिन 'एम' की भी मृत्यु हो गई। अब उनके लिए अधिक जीने का कोई अर्थ नहीं रह गया था। मैं समझ सकता हूं... रामकृष्ण की मृत्यु के बाद 'एम' के लिए मरने की तुलना में जीना कहीं अधिक मुश्किल था। अपने सद्गुरु के बिना जीने के बजाय मृत्यु कहीं अधिक आनंददायी थी। 

सद्गुरु तो अनेक हो चुके हैं लेकिन 'एम' जैसा शिष्य कभी नहीं हुआ जिसने अपने सद्गुरु के बारे में इतना सही-सही लिखा हो। वे कहीं भी बीच में नहीं आते हैं। उन्होंने ज्यूं का त्यूं लिखा है--अपने और रामकृष्ण के संबंध में नहीं, बल्कि केवल रामकृष्ण के संबंध में।‌ सद्गुरु के सान्निध्य में उनका अस्तित्व ही नहीं रहता। मैं इस व्यक्ति से और उनकी पुस्तक से, और खुद को मिटा देने के उनके अथक प्रयास से प्रेम करता हूं।‌ 'एम' जैसे शिष्य मिलना दुर्लभ है। रामकृष्ण इस मामले में जीजस से कहीं अधिक भाग्यशाली थे। मुझे उनका नाम मालूम है, क्योंकि मैंने बंगाल में यात्रा की है।‌ रामकृष्ण पिछली सदी के अंत तक जीवित थें, इसलिए मैं जान सका कि उनका नाम 'महेंद्रनाथ' है।

ओशो : मेरी प्रिय पुस्तकें 

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Saturday, September 7, 2024

बाघों को पसंद आ रहा है पन्ना बफर का जंगल

  • खजरीकुडार के जंगल में दिखा बाघों का जोड़ा 
  • पन्ना बफर में आधा दर्जन से भी अधिक बाघ 

वनराज का जोड़ा किल का मजा लेते हुए।  (फ़ाइल फोटो) 

।। अरुण सिंह ।।

पन्ना। मध्यप्रदेश के पन्ना जिला मुख्यालय के निकट खजरीकुडार के जंगल में सड़क मार्ग के किनारे विचरण करते दो बाघ (नर - मादा)  राहगीरों को दिखे हैं। राहगीरों ने इनका वीडियो भी बनाया है जो सोशल मीडिया में वायरल हो रहा है। वीडियो में राहगीरों की आवाज भी सुनाई दे रही है जिसमें वे कहते हैं कि "भारी बडो नाहर (बाघ) आये है, एक नहीं दो हैं। हमने अपने जीवन में इतनो बड़ो शेर नहीं देखो।" खजरीकुडार निवासी कमल सिंह यादव ने बताया कि शुक्रवार 6 सितम्बर की दोपहर लगभग डेढ़ बजे पन्ना में दूध देकर वह व अंकुल यादव जब वापस गाँव लौट रहे थे, उसी समय रोड के पास ही पानी से भरे डबरे में दो बाघ आराम से बैठे थे। कई अन्य लोगों के वहां से गुजरने पर बाघ उठकर जंगल की तरफ निकल गए। 

गौरतलब है कि आज से तक़रीबन डेढ़ दशक पूर्व पन्ना के जंगल बाघ विहीन हो गए थे। लेकिन वर्ष 2009 में यहाँ शुरू हुई बाघ पुनर्स्थापना योजना को मिली चमत्कारिक सफलता के बाद से यहाँ बाघों का कुनबा तेजी से बढ़ा। अब आलम यह है कि सड़क मार्ग पर चलते हुए भी बाघों के दर्शन होने लगे हैं। पन्ना टाइगर रिज़र्व में बाघों की संख्या बढ़ी है जिससे यहाँ के बाघ अब अपने लिए टैरिटरी ( इलाका ) की खोज में बाहर निकलने लगे हैं। यही वजह है कि पन्ना टाइगर रिज़र्व के बाघ अब कोर क्षेत्र से बाहर बफर के जंगल में स्वच्छंद विचरण करते अक्सर नजर आ जाते हैं।

पन्ना बफर का जंगल मौजूदा समय बाघों का पसंदीदा स्थल बनता जा रहा है। यहां के जंगल में वह सब कुछ है जो बाघों के लिए जरुरी है। छिपने के लिए बेहतरीन जंगल व लेंटाना की घनी झाड़ियों के साथ यहाँ प्राकृतिक नालों में अविरल बहने वाली जलधार शाकाहारी वन्य जीवों के अलावा शिकारी वन्य प्राणियों को भी अपनी ओर आकर्षित करती है। मौजूदा समय इस बफर क्षेत्र के जंगल में आधा दर्जन से भी अधिक बाघों की मौजूदगी बताई जा रही है। 

पन्ना बफर में झिन्ना से लेकर खजरीकुडार, दहलान चौकी, हर्रा चौकी,विश्रामगंज घाटी व रानीपुर का इलाका बाघों की चहल-कदमी से गुलजार है। सूत्रों के हवाले से यह भी खबर है कि  इस इलाके में एक जोड़े की मौजूदगी बीते कई महीनों से है, जिनके हाल ही में जन्मे शावक भी हैं। अभी शावकों की मौजूदगी के प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं मिले, इसलिए यह बता पाना संभव नहीं है कि शावकों की संख्या कितनी है। कैमरा ट्रैप से प्रमाण जुटाने के प्रयास पार्क प्रबंधन द्वारा किया जा रहा हैं।    

पन्ना टाइगर रिजर्व के कोर क्षेत्र में क्षमता से अधिक बाघ

पन्ना टाइगर रिजर्व में बाघों की बढ़ती तादाद के लिहाज से 576 वर्ग किलोमीटर का कोर क्षेत्र काफी छोटा पड़ रहा है। ऐसी स्थिति में यहां के युवा व बुजुर्ग बाघ अपने लिए नये आशियाना की तलाश में कोर क्षेत्र से बाहर निकलकर बफर के जंगल में पहुंच रहे हैं। कोर क्षेत्र के चारों तरफ 1021.97 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले बफर के जंगल में मौजूदा समय बड़ी संख्या में बाघ स्वच्छंद रूप से विचरण कर रहे हैं। बफर क्षेत्र में अपने लिए ठिकाना तलाश रहे इन बाघों की निगरानी व उनकी सुरक्षा इस समय प्रबंधन के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। बफर क्षेत्र के जंगलों में बाघों की मौजूदगी को देखते हुए जहाँ निगरानी बढ़ा दी गई है वहीं जंगल में बाघों के विचरण से अवैध कटाई पर भी स्वाभाविक तौर पर अंकुश लगा है। जो निश्चित है शुभ संकेत है, इससे आने वाले समय में यह पूरा इलाका भी पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र बन सकता है। 

खजरीकुडार के जंगल का वह वीडियो जो वायरल हो रहा -


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Friday, September 6, 2024

स्वास्थ्य बीमा की किस्त बढ़ाये जाने पर पत्रकारों ने मुख्यमंत्री एवं सांसद के नाम सौपा ज्ञापन

  • एडीएम नीलांबर मिश्रा को दिया अधिमान्य पत्रकारों ने ज्ञापन
  • रेल यात्रा में पूर्ववत कंसेशन बहाल कराये जाने की भी की मांग 

अपर कलेक्टर नीलांबर मिश्रा को ज्ञापन सौंपते हुए जिले के अधिमान्य पत्रकार। 

पन्ना। मध्यप्रदेश सरकार के जनसंपर्क विभाग द्वारा अधिमान्य पत्रकारों के स्वास्थ्य बीमा की किस्त में बेतहाशा वृद्धि की गई है। इस वृद्धि के चलते ग्रामीण व कस्बाई क्षेत्रों में कर्तव्य निष्ठां के साथ काम करने वाले पत्रकार अत्यधिक असहज व बीमा राशि दे पाने में असमर्थ हैं। पत्रकारों की इस कठिनाई को द्रष्टिगत रखते हुए स्वास्थ्य बीमा की किस्त में हुई अप्रत्याशित वृद्धि को वापस लेकर गत वर्ष 2023-24 के अनुरूप किया जाना आर्थिक रूप से कमजोर पत्रकारों के हित में होगा। इसके अलावा रेल यात्रा कंसेशन बहाल करने और पत्रकारों से सहयोगात्मक रवैया अपनाने की तीन सूत्री मांगों को लेकर पन्ना जिले के  सरकारी मान्यता प्राप्त पत्रकारों ने आज मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव एवं सांसद विष्णु दत्त शर्मा के नाम ज्ञापन सोपा है।  

जिले के अधिमान्य  पत्रकार कलेक्ट्रेट पहुंचे और अपर कलेक्टर नीलांबर मिश्रा को ज्ञापन दिया तथा अपनी समस्या बताई।  इस दौरान एडीएम ने कहा कि आपका ज्ञापन मूलतः मुख्यमंत्री जी को भेजा जा रहा है। ज्ञापन देने वालों में पन्ना अधिमान्य पत्रकार संघ के अध्यक्ष बृजेंद्र गर्ग, वरिष्ठ पत्रकार अरुण सिंह, मनीष मिश्रा, शिवकुमार त्रिपाठी, बी एन जोशी बालकृष्ण शर्मा, नईम खान, अनिल तिवारी, मुकेश विश्वकर्मा,अमित खरे  नदीम उल्लाह खान, कादिर खान सहित प्रमुख रूप से पत्रकारों ने ज्ञापन दिया है।   

ज्ञापन में कहा गया है कि सरकार द्वारा अधिमान्य और गैर अधिमान्य पत्रकारों के स्वास्थ्य बीमा कराए जाते हैं जिसमें पत्रकारों के हिस्से की राशि में अनुचित वृद्धि की गई है। जैसे 46 से 55 वर्ष के आयु वर्ग में अधिमान्य पत्रकारों के लिए वर्ष 2023-24 में 4 लाख की कैटेगरी में स्वयं-पति/पत्नी दो संतान एवं माता-पिता के लिए की बीमा किस्त में 11186 रुपए लिए गए थे जबकि इसी कैटेगरी और ऐसी ही स्थिति में इस वर्ष 2024-25 के बीमा हेतु पत्रकारों का हिस्सा 26713 रुपए निर्धारित किया गया हैं। ऐसी ही स्थिति अन्य कैटेगरी और गैर अधिमान्य पत्रकारों के लिए निर्धारित किया गया है, करीब ढाई गुना वृद्धि अनुचित है। 

जिला स्तर से जारी होने वाले विज्ञापन और पत्रकारों के अधिकांश हित लाभ बंद कर दिए गए हैं। अब विज्ञापन  सीधे प्रदेश स्तर से जारी होते हैं, जिससे मैदानी स्तर पर काम करने वाले पत्रकारों की आय प्रभावित हुई है। सरकार और प्रशासन को मैदानी स्तर पर सहयोगात्मक रवैया अपनाया जाना चाहिए।  इसी तरह रेल यात्रा के दौरान अधिमान्य पत्रकारों को 50 फ़ीसदी कंसेशन दिया जाता था, जो कोरोना के समय बंद कर दिया गया। पत्रकारों को रेल यात्रा में मिलने वाली यह सुविधा आज तक बहाल नहीं हुई, इसलिए यात्रा कंसेशन को पूर्व की भांति बहाल कराया जाए। प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव एवं क्षेत्रीय सांसद विष्णु दत्त शर्मा के नाम संबोधित ज्ञापन में उल्लेखित मांगो पर तत्काल फैसला कर सहयोग प्रदान करने की अपेक्षा की गई है। 

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