Thursday, July 22, 2021

पत्थर खदान : हाड़ तोड़ मेहनत, सिलिकोसिस फिर घुट-घुट कर मौत !

  • गरीब आदिवासी मजदूरों की जिंदगी पत्थर खदानों में छेनी, हथौड़ा और घन चलाते खत्म हो जाती है। सांसों के जरिए लाइलाज बीमारी फेफड़ों में उतरकर उन्हें लाचार बना देती है। कम उम्र में असमय मौत होने से खदान क्षेत्र के ग्रामों में विधवा हो चुकी महिलाओं की भरमार है।

बड़ौर गांव की आदिवासी महिलाएं जिनके पति पत्थर खदानों में काम करते थे, उनकी असमय मौत होने पर अब वे बेसहारा हो गईं हैं। ( सभी फोटो - अरुण सिंह )

।। अरुण सिंह ।।

पन्ना।  दो जवान बेटों की असमय मौत से बुरी तरह टूट चुके 65 वर्षीय सरदइयां गोंड़ के ऊपर परिवार के भरण-पोषण की जवाबदारी है। जिंदगी से हताश व हर समय गुमसुम रहने वाले सरदइयां ने बताया कि उसके दो जवान बेटों (धनकू 30 वर्ष तथा राजेश 27 वर्ष) को सांस की बीमारी सिलिकोसिस ने लील लिया है। बेटों की मौत के बाद बहुएं घर छोड़कर जा चुकी हैं। अब दो नाती तथा एक नातिन व पत्नी के पालन-पोषण की जिम्मेदारी मेरे ऊपर है। यह दु:खद कहानी मध्यप्रदेश के पन्ना जिला मुख्यालय से 14 किलोमीटर दूर आदिवासी बहुल बड़ौर गांव की है। पत्थर खदानों में काम करने वाले मजदूरों के कम उम्र में ही असमय काल कवलित होने से इस गांव में विधवा हो चुकी महिलाओं की भरमार है।

गांव में नए-नए उम्र के न जाने कितने लड़के खत्म हो गये। सरदइयां गोंड बताते हैं कि पत्थर खदान में बमुश्किल 10-15 साल काम करते हैं, फिर बीमार पड़ जाते हैं। एक बार बीमार पड़े तो फिर काम करने लायक नहीं बचते। थोड़ी दूर चलने से ही सांस फूलने लगती है। यह ऐसी बीमारी है कि घुट-घुट कर मरने के सिवाय और कोई चारा नहीं है। इसी माह जुलाई में बीते रोज जब हम बडौर गांव पहुंचे तो सुबह लगभग 11 बजे यहां सन्नाटा पसरा था। गांव के गुडयाना मोहल्ला में पुराने इमली के पेड़ की छांव में सरदइयां गुमसुम बैठा हुआ था। गांव की गलियों में इक्के-दुक्के मवेशी व छोटे बच्चे नजर आ रहे थे।

सरदइयां गोंड़ जिनके दो कम उम्र के जवान बेटों को सिलिकोसिस ने छीन लिया।

पेड़ के नीचे छांव में हमने अपनी बाइक खड़ी कर सरदइयां से बातचीत शुरू की। इस बीच खांसते हुए बडौर के ही निवासी प्यारेलाल साहू 60 वर्ष आ गए। सरदइयां गोंड़ ने बताया कि गांव में 50 से भी ज्यादा विधवा महिलाएं हैं, इनमें कई महिलाएं कम उम्र की भी हैं। प्यारेलाल साहू जो खुद सिलकोसिस से पीड़ित हैं, उन्होंने बताया कि पन्ना में ना तो जांच की कोई व्यवस्था है और ना ही इलाज की। यहां डॉक्टर बीमार पडऩे पर टीबी (क्षय रोग ) बता देते हैं और टीबी का ही इलाज चलता है। पिछले माह 20 जून को सिलिकोसिस पीड़ित बडौर गांव के ही सुखनंदी गोंड़ 58 वर्ष की मौत हुई है।

प्यारे लाल ने बताया कि एक साल के भीतर एक ही परिवार के तीन सगे भाई मुन्ना गोंड़ 35 वर्ष, बलमू गोंड़ 25 वर्ष तथा मुलायम गोंड़ 30 वर्ष खत्म हुए हैं। तीनों पत्थर की खदानों में काम करते थे। बीमारी के चलते अत्यधिक कमजोर हो चुके प्यारेलाल ने अपनी व्यथा सुनाते हुए बताया कि अब वह मेहनत का कोई काम नहीं कर सकता। उसके दो बेटे हैं जो अलग रहते हैं। मेरे साथ पत्नी व एक अंधी बहन है, जिनका भरण-पोषण गुटका व बीड़ी बेचकर किसी तरह करता हूं।

पत्थर खदान मजदूरों व कुपोषण पर काम करने वाली समाजसेवी संस्था पृथ्वी ट्रस्ट के रविकांत पाठक बताते हैं कि संस्था के पूर्व संचालक यूसुफ बेग जिनका कोरोना संक्रमण के चलते बीते माह निधन हो गया है। उनकी पहल व प्रयासों से 2010 में इन्विरोनिक्स ट्रस्ट दिल्ली ने पन्ना के पत्थर खदानों में काम करने वाले 43 मजदूरों की जांच केम्प लगा कर करवाई थी, जिनमें 39 मजदूर सिलिकोसिस पीड़ित पाए गए थे। फिर पत्थर खदान मजदूर संघ की पहल से वर्ष 2012 में 104 मजदूरों की जाँच कराई गई, उसके बाद से किसी भी मजदूर की सिलिकोसिस जाँच नहीं हुई। दो जाँच कैम्पों में जिले के 122 मजदूरों में सिलिकोसिस की पुष्टि हुई थी। आपने बताया कि पन्ना जिले के ग्राम बडौर, पन्ना, मडैयन, दरेरा, मनौर, माझा, गॉधीग्राम, सुनारा, जनकपुर, तिलगवॉ, खजरी कुडार, कल्याणपुर, पुरूषोत्तमपुर, मानशनगर, जरधोबा, मनकी, जरूआपुर, पटी, जमुनहाई में सिलीकोसिस पीड़ित मरीज पाए गए हैं।

बडौर गांव में थीं पत्थर की कई खदानें

दो दशक पूर्व तक बडौर गांव में पत्थर की कई बड़ी खदानें थीं, जिनमें 5 से 7 हजार मजदूर काम किया करते थे। वन संरक्षण अधिनियम के चलते अब यहां की पत्थर खदानें बंद हैं। लेकिन जानलेवा बीमारी सिलिकोसिस का साया इस गांव में आज भी मंडरा रहा है। प्यारे लाल साहू ने बताया कि वे लोग बडौर की खदानों में वर्षों काम किया है, जिससे उन्हें सिलिकोसिस हुआ। गांव के लोग अब पत्थर खदानों में काम करते हैं या नहीं, यह पूछे जाने पर सरदइयां गोंड़ ने बताया कि यहां के लोग अच्छे कारीगर हैं। पत्थर को काटकर उनकी चीपें बनाने में यहां के लोगों को महारत हासिल है। चूंकि दूसरा कोई काम नहीं जानते इसलिए आज भी अनेकों लोग पत्थर खदानों में ही काम करते हैं। खनिज अधिकारी पन्ना रवि पटेल ने बताया कि जिले में 106 पत्थर की खदानें स्वीकृत हैं। 

पन्ना जिले के कुटरहिया पहाड़ स्थित पत्थर की एक खदान में काम करता मजदूर।  ( फाइल फोटो )

प्यारेलाल बताते हैं कि गांव में काम नहीं मिलता, इसलिए जवान लड़के या तो महानगरों की ओर पलायन कर जाते हैं या फिर पवई क्षेत्र के कुटरहिया पहाड़ की पत्थर खदानों में काम करते हैं। उन्होंने बताया कि गांव के 30-35 मजदूर पत्थर खदानों में आज भी काम कर रहे हैं। ये लोग वहीं खदान में ही रहते हैं और महीना दो महीना में घर आते हैं। गांव में ज्यादातर बुजुर्ग, बच्चे व महिलाएं ही रहती हैं।

गांव में 50 से अधिक विधवायें, 22 को मिल रही पेंशन


बडौर गांव में ऐसी कई विधवा महिलाएं हैं जिन्हे अभी विधवा पेंशन भी नहीं मिल रही। 

सरदइयां गोंड़ की मदद से गांव की कुछ विधवा महिलाओं को बुलाया गया, तो वे भी पेड़ की छांव के नीचे आकर बैठ गईं। चर्चा करने पर कस्तूरा बाई 60 वर्ष ने बताया कि उसके आदमी श्यामलिया गोंड़ 62 वर्ष की पिछले साल मौत हुई है। वे पहले बडौर की खदान में काम करते थे, फिर बीमार हो गए। पूरे 20 साल तक टीबी का इलाज चलता रहा, पर ठीक नहीं हुए। कस्तूरा बाई ने बताया कि उसके दो लड़के और दो लड़कियां हैं। लड़कियों की शादी हो चुकी है तथा एक लड़का पत्थर खदान में काम करता है। दूसरे लड़के को जहां काम मिल गया वहां जाकर मजदूरी करता है। कस्तूरा बाई ने बताया कि उसे शासन से 3 लाख रुपये की सहायता भी मिली है, जिससे बीमारी में जो कर्ज लिया था उसे चुकाया है।

मेरे अलावा गांव की दो अन्य विधवा महिलाओं धन्नी बाई व मुलिया बाई को भी राशि मिली है। कस्तूरा बाई बताती है कि गांव की अन्य विधवा महिलाओं को सहायता राशि नहीं मिली। वजह पूछे जाने पर बताया गया कि चूंकि मृतकों की जांच नहीं हुई, इसलिए सिलकोसिस पीड़ितों की सूची में उनका नाम शामिल नहीं हुआ। यही वजह है कि मृतकों की विधवाओं को सहायता राशि नहीं मिली। ग्राम पंचायत बडौर के सरपंच रूप सिंह यादव ने बताया कि बडौर पंचायत के अंतर्गत उमरावन, मड़ैयन व कैमासन गांव भी आते हैं। आपने बताया कि अकेले बडौर में 22 विधवा महिलाओं को 600 रुपये प्रतिमाह विधवा पेंशन दी जा रही है।

पड़ोसी गांव मनौर के भी हैं बडौर जैसे हालात


सात बच्चों की मां 38 वर्षीय रामकुमारी, जिसकी गोद में कुपोषित बच्ची 3 वर्षीय प्रियंका है।

पन्ना जिला मुख्यालय से महज 7 किलोमीटर दूर स्थित मनौर गांव के गुडय़िाना टोला के हालात भी बडौर जैसे ही हैं। इस गांव में भी कई लोगों की मौत सिलिकोसिस से हुई है। तकरीबन ढाई सौ घरों वाली इस आदिवासी बस्ती में भी 30 से अधिक विधवा महिलाएं हैं। भीषण गरीबी, कुपोषण व बेरोजगारी इस गांव की सबसे बड़ी समस्या है। मनौर गांव के गुडय़िाना टोला में जैसे ही हम पहुंचे, एक महिला अपने घर के सामने बेहद कमजोर बच्ची को गोद में लिए खड़ी थी। हम महिला के पास पहुंचे जिसका नाम राजकुमारी गोंड़ (38 वर्ष) है। इस महिला ने बताया कि उसके सात बच्चे हैं, सबसे बड़ा लड़का 18 वर्ष का चंद्रभान व सबसे छोटी यह बच्ची प्रियंका 3 वर्ष है। रामकुमारी ने बताया कि प्रियंका शुरू से ही कमजोर थी, जिसे पिछले साल अस्पताल में भर्ती भी किया था। गांव में प्रियंका अकेली कुपोषित नहीं है। इस तरह के अन्य कई बच्चे भी हैं जो कुपोषण का शिकार हैं।

मनौर गांव के गुडय़ाना टोला के पास ईट के भट्टे जहां बीते माह तक आदिवासी मजदूरी करते रहे हैं। लेकिन अब बारिश में यहां काम बंद है।

वहीं पास ही चबूतरे में बैठे गुन्नू आदिवासी ने बताया कि एक माह पहले तक ईट भट्ठा में काम मिल जाता था, लेकिन अब बारिश में काम बंद है इसलिए घर बैठे हैं। मनरेगा के भी काम नहीं चल रहे, ज्यादातर मशीनों से काम करा लिया जाता है। काम न मिलने के कारण गांव के ज्यादातर लोग दिल्ली, राजस्थान व जम्मू चले जाते हैं। पूरे 4 माह बाहर रहकर कमाएंगे इसके बाद वापस घर लौटेंगे। गांव की महिलाएं जंगल से लकड़ी का गट्ठा लाकर शहर में बेचने जाती हैं, जिससे उन्हें सौ डेढ़ सौ रुपए मिल जाता है। इसी से ही परिवार का गुजारा चलता है।

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