Friday, June 5, 2020

पर्यावरण संरक्षण अब हमारा चुनाव नहीं, आवश्यकता है

  • पृथ्वी कहती है, मुझ से कुछ लो तो कुछ वापस भी करो 
  • मनुष्य जाति को अब सीखना होगा जीने का सलीका 




पर्यावरण की रक्षा करना अब हमारा चुनाव नहीं, आवश्यकता हो गई है। मनुष्य के हाथों में विज्ञान की इतनी बड़ी ताकत आ गई और वह नहीं जान सका कि उसका कैसे उपयोग किया जाए। वह प्रकृति को जीतने लगा। वह भूल गया कि प्रकृति भिन्न नहीं है, उसका ही विस्तार है। विज्ञान के विकास के साथ मानव जीवन से विस्मय गायब हुआ, मासूमियत नदारद हुई। जैसे ही आदमी के हाथ में विध्वंसक अस्त्र-शस्त्र आ गए, उसने सबसे पहली चोट की पर्यावरण पर। आधुनिक मनुष्य एक असंतुलित प्राणी है। आधुनिक आदमी बाह्य को नष्ट करने में इसलिए उतारू हो गया है क्योंकि उसका आंतरिक जीवन ध्वस्त हुआ पड़ा है। पूरी धरती पर आतंकवाद, युद्ध पिपासा और अपराध यूं ही नहीं बढ़े हैं, ये हमारी चित्तदशा का प्रतिफलन हैं। ओशो कहते हैं - प्रकृति को जीतने का प्रयास कर मनुष्य जाति संकट में पड़ गई है।
हम पृथ्वी से केवल लेते हैं, उसे वापस कुछ नहीं लौटाते। प्रकृति एक पूर्ण चक्र है रू एक हाथ से लो, तो दूसरे हाथ से दो। इस वर्तुल को तोड़ना ठीक नहीं है। लेकिन हम यही कर रहे हैं -सिर्फ लिये चले जा रहे हैं। इसीलिए सारे स्त्रोत सूखते जा रहे हैं। धरती विषाक्त होती जा रही है। नदियां प्रदूषित हो रही हैं, तालाब मर रहे हैं। हम पृथ्वी से अपना रिश्ता इस तरह से बिगाड़ रहे हैं कि भविष्य में इस पर रह नहीं पाएंगे। आधुनिक विज्ञान का रवैया जीतने वाला है। वह सोचता है कि धरती और आकाश से दोस्ती कैसी, उस पर तो बस फतह हासिल करनी है। हमने कुदरत का एक करिश्मा तोड़ा, किसी नदी का मुहाना मोड़ दिया, किसी पहाड़ का कुछ हिस्सा काट लिया, किसी प्रयोगशाला में दो-चार बूँद पानी बना लिया और बस प्रकृति पर विजय हासिल कर ली। जैसे प्लास्टिक को देखो। उसे बना कर सोचा, प्रकृति पर विजय हासिल कर ली। कमाल है, न जलता है, न गीला होता है, न जंग लगती है - महान उपलब्धि है। उपयोग के बाद उसे फेंक देना कितना सुविधाजनक है। लेकिन मिट्टी प्लास्टिक को आत्मसात नहीं करती। एक वृक्ष जमीन से उगता है। मनुष्य जमीन से उगता है। तुम वृक्ष को या मनुष्य को वापस जमीन में डाल दो तो वह अपने मूल तत्वों में विलीन हो जाते हैं। लेकिन प्लास्टिक को आदमी ने बनाया है। उसे जमीन में गाड़ दो और बरसों बाद खोदो तो वैसा का वैसा ही पाओगे।
अमेरिका के आसपास समुद्र का पूरा तट प्लास्टिक के कचरों से भरा पड़ा है। और उससे लाखों मछलियां मर जाती हैं, उसने पानी को जहरीला कर दिया है। पानी की सजीवता मर गई। और यह खतरा बढ़ता जा रहा है कि दिन ब दिन और अधिक प्लास्टिक फेंका जाएगा और पूरा जीवन मर जाएगा। पर्यावरण का अर्थ है संपूर्ण का विचार करना। भारतीय मनीषा हमेशा श्पूर्णश् का विचार करती है। पूर्णता का अहसास ही पर्यावरण है। सीमित दृष्टि पूर्णता का विचार नहीं कर सकती। एक बढ़ई सिर्फ पेड़ के बारे में सोचता है। उसे लकड़ी की जानकारी है, पेड़ की और कोई उपयोगिता मालूम नहीं है। वे किस तरह बादलों को और बारिश को आकर्षित करते हैं। वे किस तरह मिट्टी को बांध कर रखते हैं। उसे तो अपनी लकड़ी से मतलब है। वैसी ही सीमित सोच ले कर हम अपने जंगलों को काटते चले गए और अब भुगत रहे हैं। अब आक्सीजन की कमी महसूस हो रही है। वृक्ष न होने से पूरा वातावरण ही अस्तव्यस्त होता जा रहा है। मौसम का क्रम बदलने लगा है और फेफड़ों की बीमारियाँ बढ़ती जा रही हैं।
सुना है कि पुराने जमाने में प्रशिया के राजा फ्रेडरिक ने एक दिन देखा कि खेत-खलिहानों में पक्षी आते हैं और अनाज खा जाते हैं। वह सोचने लगा कि ये अदना से पंछी पूरे राज्य में लाखों दाने खा जाते होंगे। इसे रोकना होगा। तो उसने राज्य में ऐलान कर दिया कि जो भी पक्षियों को मारेगा उसे इनाम दिया जाएगा। बस प्रशिया के सारे नागरिक शिकारी हो गए और देखते ही देखते पूरा देश पक्षी विहीन हो गया। राजा बड़ा प्रसन्न हुआ। उत्सव मनाया -उन्होंने प्रकृति पर विजय पा ली। पर अगले ही वर्ष गेहूँ की फसल नदारद थी। क्योंकि मिट्टी में जो कीड़े थे और जो टिड्डियां थीं, उन्हें वे पक्षी खाते थे और अनाज की रक्षा करते थे। इस बार उन्हें खाने वाले पंछी नहीं थे सो उन्होंने पूरी फसल खा डाली। उसके बाद राजा को विदेशों से चिड़ियाएँ मंगानी पड़ीं। यह सृष्टि परस्पर निर्भर है। उसे किसी भी चीज से खाली करने की कोशिश खतरनाक है। न हम निरंकुश स्वतंत्र हैं, और न परतंत्र हैं। यहाँ सब एक दूसरे पर निर्भर हैं। पृथ्वी पर जो कुछ भी है, वह हमारे लिए सहोदर के समान है। हमें उन सबके साथ जीने का सलीका सीखना होगा।
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