बीबीसी ने आज कहा, ..."यह इतिहास में ऐसा पहला मौका है जबकि दुनिया भर में देशों की प्रशासनिक और राजनीतिक व्यवस्थाओं की काबिलियत की इस तरह जांच हो रही है। कोरोना के खिलाफ इस जंग में लीडरशिप ही सब कुछ है। मौजूदा राजनीतिक नेताओं को इस आधार पर आंका जाएगा कि इस संकट की घड़ी में उन्होंने कैसे काम किया और कितने प्रभावी तरीके से इसे काबू किया। यह देखा जाएगा कि इन नेताओं ने किस तरह से अपने देश के संसाधनों का इस्तेमाल कर इस महामारी को रोका...।"
बीबीसी जो कह रहा है वह दुनिया के करोड़ों लोगों की भावनाओं की भी अभिव्यक्ति है क्योंकि 20वीं शताब्दी में महामारियों की श्रृंखलाओं पर जीत के मद में डूबे मानव समुदाय के लिये कोरोना वायरस अकल्पनीय त्रासदी की तरह सामने आया है और इतिहास में ऐसा पहली बार हो रहा है जब पूरी दुनिया एक साथ संकट में है।
जाहिर है, दुनिया भर के लोग इस कसौटी पर अपने नेताओं को कस रहे होंगे। अमेरिका में ट्रम्प को भी, जिन्होंने वैज्ञानिकों की चेतावनी के बावजूद कोरोना वायरस को चीनी वायरस कह कर इसका मजाक उड़ाया और अपने देश में इसके संक्रमण की सघनता की संभावनाओं से इन्कार किया।
आज अमेरिका कोरोना के सामने घुटनों के बल गिरा है और विशेषज्ञ कह रहे हैं कि उत्तर कोरोना दौर में, जब संकट के बादल छंटने लगेंगे, दुनिया में अमेरिकी प्रताप भी घटेगा। उसकी अर्थव्यवस्था, जो पहले से ही चिंताओं के घेरे में है, और डगमगा जाएगी। वर्त्तमान तो अपनी कसौटियों पर कस ही रहा है, इतिहास भी इस आधार पर ट्रंप का मूल्यांकन करेगा कि उन्होंने कोरोना संकट से निपटने में कितनी दूरदर्शिता और कैसी नेतृत्व क्षमता का परिचय दिया। इतना तो तय है कि आगामी राष्ट्रपति चुनाव में उनकी चुनौतियां बढ़ गई हैं।
धर्म को राजनीति का पथ प्रदर्शक ही नहीं, नियंत्रक भी मानने वाले ईरान के नेताओं ने अपनी अदूरदर्शिता के कारण देश को गहरे संकट में डाल दिया है। धर्मस्थलों पर लोगों को भीड़ लगाने से मना करने वाले वैज्ञानिकों का मजाक उड़ाते हुए ईरानी नेताओं ने अपनी जनता को मस्जिदों में जुटने का आह्वान किया। लोगों ने तो इंतेहा ही कर दी जब उन्होंने मस्जिदों में न सिर्फ भारी भीड़ लगा दी, बल्कि अपने नेताओं के आह्वान से दस कदम आगे बढ़ कर सामूहिक रूप से मस्जिदों की दीवारों को चूमना शुरू कर दिया।
नतीजा, ईरान अपने ज्ञात इतिहास के सबसे बड़े संकट से जूझ रहा है और कोरोना संक्रमण के कारण वहां हो रही मौतों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। विश्लेषकों का मानना है कि इस संकट से उबरने के बाद ईरान की नई पीढ़ी अपने राजनीतिक तंत्र में धार्मिक नेताओं के निर्णायक हस्तक्षेप को नकारने की ओर बढ़ेगी।
कोरोना संकट दुनिया को धर्म की व्याख्या नए सिरे से करने की प्रेरणा तो देगा ही, लोगों के दैनंदिन जीवन में धर्म के हस्तक्षेप को कम करने की मानसिकता भी विकसित करेगा।
चीन में, जहां से यह संकट उत्पन्न हुआ, राजनीतिक तंत्र ने किस तरह इसका सामना किया यह अलग अध्याय है, लेकिन उसने इससे जुड़ी खबरों को शुरुआती तौर पर सेंसर किया, रहस्य की ऐसी कुहेलिका निर्मित की जिसने भ्रम का वातावरण बनाया। आने वाले समय में इन तथ्यों की परतें भी उधड़ेंगी ही और इतिहास की कसौटी पर सिर्फ चीन का सर्वोच्च राजनीतिक नेतृत्व ही नहीं, उसकी राजनीतिक और प्रशासनिक संरचना भी होगी।
हालात से निपटने में सिंगापुर, कनाडा, साउथ कोरिया आदि कुछ देशों ने अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किये हैं, लेकिन शुरुआती लापरवाही और प्रशासनिक अदूरदर्शिता ने इटली सहित यूरोप के कई देशों को गहरे संकट में डाल दिया है।
यूरोपीय देश संसाधन संपन्न हैं, वहां का जनमानस एशियाई देशों के मुकाबले वैज्ञानिक चेतना से लैस है, तब भी अगर वहां संक्रमण का संकट इतना अधिक गहराया है तो इसकी जिम्मेदारियों से उनका राजनीतिक नेतृत्व बच नहीं सकता।
भारत में...???
संक्रमण की पहली घटना के दो सप्ताह बाद तक भी आलम यह था कि विपक्ष के राहुल गांधी की चेतावनी का मजाक उड़ाते हुए हमारे स्वास्थ्य मंत्री ने, जो खुद भी एक डॉक्टर हैं, आरोप लगया कि वे जनता में श्पैनिक क्रिएटश् कर रहे हैं।
यह तब, जब विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोरोना को विश्वव्यापी महामारी घोषित कर तमाम देशों को अत्यधिक सतर्कता बरतने का निर्देश जारी कर दिया था।
केम छो ट्रंपश् के शानदार, चमकदार आयोजन की खुमारी में डूबे हमारे प्रधानमंत्री को उनके वैज्ञानिक सलाहकारों ने कैसी सलाहें दीं, हमें नहीं पता, लेकिन आसन्न संकट के प्रति सर्वोच्च राजनीतिक स्तर पर जो ढिलाई बरती गई उसका खामियाजा आज देश भुगत रहा है।
निस्संदेह, यह वक्त राजनीतिक बातों या रुझानों से ऊपर उठने का है लेकिन जब आप अचानक से 8 बजे शाम में 12 बजे रात से देशव्यापी लॉक डाउन की घोषणा करते हैं और देश भर में बिखरे लाखों दिहाड़ी मजदूरों और प्रवासियों के संबंध में एक शब्द नहीं बोलते तो यह ऐसी प्रशासनिक चूक है जिसका विश्लेषण भी राजनीतिक रुझानों से ऊपर उठ कर करना होगा।
यहां तक कि बांग्लादेश ने भी लॉक डाउन के संदर्भ में प्रवासियों के प्रति अधिक प्रशासनिक संवेदनशीलता और व्यवस्थागत दक्षता का परिचय दिया है। लेकिन भारत में हालात काबू से बाहर हैं।
महानगरों के बस स्टैंड्स और राष्ट्रीय उच्च पथों पर हजारों की संख्या में भटकते, भूख से बिलबिलाते और पुलिस की लाठियां खाते गरीबों का हुजूम इस तथ्य की तस्दीक करता है कि हमारा राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र आज भी मूलतः दमनकारी मानसिकता से ही संचालित है।
जब आप वंचितों के सवालों का सामना करने में असमर्थ होते हैं तो उनका दमन ही एकमात्र रास्ता लगता है आपको। चाहे नक्सल होने का आरोप लगा कर छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र आदि के गरीब आदिवासियों का भीषण दमन हो या आज अपने घरों की ओर भागते प्रवासी मजदूरों के साथ प्रशासनिक तंत्र का व्यवहार हो।
नरेंद्र मोदी को विरासत में ध्वस्त चिकित्सा तंत्र मिला था जिसे और अधिक कमजोर करने में उन्होंने बड़ी भूमिका निभाई है। उनके 6 वर्षों के कार्यकाल में स्वास्थ्य क्षेत्र में ऐसी कोई नई उपलब्धि नहीं है जिसे रेखांकित किया जा सके।
दुनिया के अन्य संकटग्रस्त देशों के नेताओं की तरह मोदी जी भी कोरोना त्रासदी से देशवासियों को बचाने की मुहिम में लगे हुए हैं। जाहिर है, इतिहास भी उन पर अपनी आंखें गड़ाए है।
उत्तर कोरोना दौर में इटली, जर्मनी, चीन, अमेरिका और ईरान ही नहीं, भारत का राजनीतिक तंत्र भी इतिहास की कसौटियों पर होगा।
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