Saturday, April 30, 2022

गाँव का एक शिल्प तीतर बटेर पालने की खधरी

 

 बाँस की खपच्चियों से निर्मित पिंजरा (खधरी)  फोटो - रवि कुमार कोल 

।। बाबूलाल दाहिया ।।                                                                                                                                           

हमारा गाँव का कृषि आश्रित समाज बहुत बड़ा समाज था, जिसमें किसान थे और 7--8 प्रकार के लोक विद्याधर शिल्पी थे। साथ ही उसी अनुपात में खेतिहर श्रमिक भी जिनके श्रम शीकरों से यह गाँव आत्म निर्भर इकाई हुआ करते थे। ऐसे आत्म निर्भर ग्रामों को लोग कहते कि "अमुक गांव में तो सतीहों जाति है"? सतीहों जाति का आशय यहां इन्ही 7 प्रमुख उद्यमी जातियों से ही था, जिनके हाथ में विकास की धुरी हुआ करती थी।

जब गांव आत्म निर्भर थे तो वहाँ रहने वालों के अपने तरह - तरह के शान शौक भी हुआ करते थे। इसलिए उनके मिजाज को भाप हमारे लोग विद्याधर शिल्पी अपने दो अदद हाथ और एक अदद विलक्षण बुद्धि से उनके अनुरूप तरह - तरह की  नई - नई वस्तुए भी बनाने में कुशल थे। यही कारण है कि उनकी निर्मित वस्तुओ के डिजाइनों की संख्या आज 250 के पार है। पर दु:खद बात यह है कि अब अधिकांश वस्तुए विलुप्तता के गहरे गर्त में समाती जा रही हैं, जिन्हें बचाना और संग्रहीत करना हमारा कर्तब्य है।

उन्ही वस्तुओ में से एक  बाँस की खपच्चियों का बना यह तीतर बटेर पालने का पिंजरा भी था। जो कुछ श्रमिकों के शौक में शामिल था, जिसे वे खधरी कहते थे। अगर वे कहीं काम में जाते तो साथ में तीतर बटेर की यह खधरी भी रहती। क्योंकि तीतर लड़ाना और पालना उनका अपना शौक था। अस्तु बाँस शिल्पी लगभग 20 प्रकार के अपने बर्तन या बस्तुएं जहाँ अन्य लोगों के लिए बनाते तो एक बाँस के पिजरे की तरकीब उनके लिए भी खोज लिए थे।

बांस की खपच्चियों और तार से बनने वाली यह खधरी दो तरह की बनती थी। एक प्रकोष्ट वाली और दो प्रकोष्ट वाली। क्योंकि स्वभाव से लड़ाकू होने के कारण दो तीतर बटेर एक साथ नहीं रह सकते थे। लेकिन अब यह खधरी भी पूरी तरह ही चलन से बाहर है।

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Friday, April 29, 2022

पन्ना का निवासी गिद्ध बिहार राज्य का विहार कर वापस लौटा

  •  प्रवासी हिमालयन ग्रिफिन चार गिद्ध पन्ना से उड़ान भरकर चीन पहुंचे 
  •  जीपीएस टैग लगने से गिद्धों के बारे में मिल रही है रोचक जानकारी



।। अरुण सिंह ।।

पन्ना। पर्यावरण के सबसे बेहतरीन सफाईकर्मी कहे जाने वाले गिद्धों के अनोखे संसार की मध्यप्रदेश के पन्ना टाइगर रिजर्व से बहुत ही रोचक जानकारी मिल रही है। इस विशालकाय पक्षी के रहवास, प्रवास और आवागमन के संबंध में जिस तरह के तथ्य प्रगट हुए हैं, वे बेहद चौंकाने वाले हैं। मौसम के अनुरूप गिद्ध अपने लिए अनुकूल ठिकाने की तलाश में लंबी उड़ान भरकर हजारों किलोमीटर की दूरी तय करते हैं। मालूम हो कि गिद्धों के रहवास और आवागमन के संबंध में अध्ययन करने के लिए पन्ना टाइगर रिजर्व में 25 गिद्धों को सौर ऊर्जा चलित जीपीएस टैग लगाए गए थे, जिससे महत्वपूर्ण व रोचक जानकारी मिल रही है।

पन्ना टाइगर रिजर्व के क्षेत्र संचालक उत्तम कुमार शर्मा ने प्रवासी गिद्धों सहित पन्ना टाइगर रिजर्व के निवासी गिद्धों के आवागमन व भ्रमण की जानकारी साझा की है। निवासी गिद्धों के बारे में आपने बताया कि कुछ गिद्ध पन्ना टाइगर रिजर्व से भ्रमण करते हुए पालपुर कूनो वन्य प्राणी अभ्यारण्य श्योपुर पहुंचकर वापस आए हैं। एक इंडियन वल्चर पन्ना टाइगर रिजर्व से भ्रमण करते हुए बिहार राज्य में सोन नदी तक की यात्रा कर वापस आया तथा अचानकमार वन्य प्राणी अभ्यारण्य अमरकंटक का भी भ्रमण किया है। श्री शर्मा बताते हैं कि रेड हेडेड गिद्ध ज्यादातर लैंडस्केप में ही विचरण कर रहे हैं।


क्षेत्र संचालक श्री शर्मा के मुताबिक अब तक चार हिमालयी ग्रिफिन गिद्ध HG_8673, HG_8677,HG_8654 और HG_6987 भारतीय सीमा पार कर चुके हैं। वर्तमान में वे चीन के तिब्बती क्षेत्र काराकोरम रेंज, नेपाल और चीन के तिब्बती क्षेत्र के पास चीन के उइघुर क्षेत्र में हैं। पहला हिमालयन ग्रिफिन HG_ 8673 के जीपीएस टैग की प्राप्त जानकारी से पता चला है कि यह गिद्ध पन्ना टाइगर रिजर्व से अपना प्रवास समाप्त कर चीन के तिब्बत क्षेत्र में Shigatse City के समीप पहुंच गया है। यह गिद्ध पन्ना टाइगर रिजर्व से बिहार में पटना, तत्पश्चात नेपाल देश के सागरमथा राष्ट्रीय उद्यान से एवरेस्ट के समीप से होते हुए Shigatse City की यात्रा की है। इस गिद्ध ने यह यात्रा लगभग 60 दिनों में 7500 किलोमीटर से अधिक दूरी तय करके की है।

पन्ना में पाई जाती हैं गिद्धों की 7 प्रजातियां 

मध्यप्रदेश का पन्ना टाइगर रिज़र्व राष्ट्रीय पशु बाघ सहित आसमान में ऊंची उड़ान भरने वाले गिद्धों का भी घर है। यहां पर गिद्धों की 7 प्रजातियां पाई जाती हैं, जिनमें 4 प्रजातियां पन्ना टाइगर रिजर्व की निवासी प्रजातियां हैं। जबकि शेष 3 प्रजातियां प्रवासी हैं। गिद्धों के प्रवास मार्ग हमेशा से ही वन्य जीव  प्रेमियों के लिए कौतूहल का विषय रहे हैं। गिद्ध न केवल एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश बल्कि एक देश से दूसरे देश मौसम अनुकूलता के हिसाब से प्रवास करते हैं। प्रवासी गिद्ध बड़ी संख्या में हर साल पन्ना टाइगर रिज़र्व हजारों किमी. की यात्रा तय करके यहाँ पहुंचते हैं और प्रजनन करते हैं। ठंढ में यहाँ प्रवास करने के बाद गिद्ध गर्मी शुरू होते ही फिर अपने घर वापस लौट जाते हैं।

भारतीय उपमहाद्वीप में पाई जाती हैं गिद्धों की 9 प्रजातियां 

भारतीय उपमहाद्वीप में गिद्धों की 9 प्रजातियां पाई जाती हैं, जिनमें से तीन जिप्स जाति की प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर हैं। जिप्स जाति के गिद्ध  1980 के दशक तक बहुत अधिक संख्या में पाए जाते थे। उस समय उनकी संख्या लगभग चार करोड़ थी। 1990 के दशक से गिद्धों की संख्या में भारी गिरावट शुरू हुई और सन 2000 तक लगभग 95% गिद्ध लुप्त हो गए। सन 2007 तक जिप्स जाति के गिद्धों की तीन स्थानीय प्रजातियां सफेद पीठ वाले गिद्ध, लंबी चोंच वाले गिद्ध और पतली चोंच वाले गिद्धों की लगभग 99% आबादी लुप्त हो गई थी। वर्ष 2012 आते-आते इन गिद्धों की संख्या नाममात्र रह गई, किंतु इनकी संख्या में गिरावट की गति कम हो गई।

बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी द्वारा गिद्धों के समूह पर शोध करने से ज्ञात हुआ कि लगभग 76% गिद्धों की मृत्यु उनके गुर्दों के खराब होने से हुई थी। इन गिद्धों के अंदरूनी अंगों में सफेद दानेदार परत जमा हुई मिली, जो गिद्धों के गुर्दे खराब होने के कारण होती है। शोध से यह भी ज्ञात हुआ कि गिद्धों के गुर्दे पशु चिकित्सा में दी जाने वाली डाइक्लोफिनेक नामक दवा से खराब हुए हैं। गिद्धों पर इस डाइक्लोफिनेक रसायन का प्रभाव तब पड़ता है, जब वे ऐसे पशु के शव का सेवन करते हैं जिसकी मृत्यु डाइक्लोफिनेक दवा से उपचार के 72 घंटे के अंदर हुई हो। यह दवा उपचार के 72 घंटे बाद मल-मूत्र द्वारा शरीर से निकल जाती है, परंतु यदि मृत्यु 72 घंटे के अंदर हुई हो तो इस दवा के अवशेष पशु के शरीर में ही रह जाते हैं और यह दवा मांस के माध्यम से गिद्धों के शरीर में पहुंच जाती है। इस दवा का अंश मात्र भी गिद्धों के लिए जहर है।

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Thursday, April 28, 2022

यादें : जब बैलों को घण्टी और गलगला बांधकर सजाया जाता था !


कुछ दशक पहले गाँवों में बैलों की अपनी एक अलग ही शान हुआ करती थी। गाँव के लोग उन्हें अच्छा दाना चारा खिलाकर हृष्ट पुष्ट तो रखते ही थे उनको सजाते और संवारते भी थे ताकि वे आकर्षक दिखें। किसके यहाँ कितने हल के बैल हैं इसी से उसकी हैसियत का अंदाजा लगाया जाता था। मेलों ठेलों व बारात में बैलगाड़ी से ही लोग जाते थे, तब बारातियों की तरह बैल भी आकर्षक ढंग से सजे धजे रहते थे। बैलगाड़ी में जुते बैलों के बीच दौड़ का मुकाबला बेहद रोमांचक होता था जिसकी महीनों पूर्व से लोग तैयारी किया करते थे।                       

बैलों और मवेशियों के गले में घंटी बांधने की परंपरा के पीछे की असल वजह क्या है ? इस बावत जब बड़े बुजुर्गों से चर्चा की गई तो उन्होंने बताया कि मवेशी देखने में आकर्षक लगे यह वजह तो थी ही लेकिन इसके अलावा घंटी बांधने की सबसे बड़ी वजह यह भी थी कि घंटी बजने से मवेशी पालक को यह पता चलता रहता था कि उसके मवेशी सुरक्षित हैं। खेतों में काम करते वक्त घंटी के बजने से उन्हें एक तरह से आनंद मिलता था। 

विंध्य क्षेत्र के जाने माने किसान पद्मश्री बाबूलाल दाहिया खेती किसानी और भूली बिसरी पुरानी परम्पराओं के न सिर्फ अच्छे जानकार हैं अपितु इन परम्पराओं को बचाने में भी रूचि लेते हैं। आपने खेती किसानी में उपयोग होने वाले पुराने औजारों को जहाँ सहेजने का काम किया है वहीं उनकी उस समय क्या उपयोगिता रही है यह भी नई पीढ़ी को बताते हैं। बैलों के गले में बांधे जाने वाले गलगला के बारे में दाहिया जी ने रोचक जानकारी साझा की है जो यथावत दी जा रही है - 


गलगला ( फोटो - बाबूलाल दाहिया )

जी हां यह गलगला है जिसे नई पीढ़ी के बहुत से लोग न जानते होंगे कि यह क्या है  और इसका क्या उपयोग था ?  क्योंकि अब शान शौकत के  रंग ढंग भी बदल गए हैं। किन्तु 50--60 का वह दशक था, जब न तो आज जैसी सड़कें थीं न सड़क में चलने वाले वाहन ही। यहां तक कि साइकल भी गांव में किन्ही एक या दो परिवार के विलासता का वाहन हुआ करती थी। अस्तु तब खेती किसानी का सबसे सुलभ और सरल वाहन था बैलगाड़ी।

बैलगाड़ी खेत, खलिहान का तो वाहन था ही पर आवश्यकतानुसार नात रिश्तेदारी में भी इसे ले जाया जाता था। न डीजल भराने की जरूरत न पैट्रोल की किल्लत। बस एक बोरा भूसा रख लिए और सारे परिवार के सदस्यों को बिठाकर चल पड़े। क्योकि सड़कें भले न रही हों पर बैलगाड़ी के ऊबड़खाबड़ रास्ते तब भी हर गाँव में होते थे।

लेकिन जिस  प्रकार आज लोग अपनी मोटर गाड़ी आदि सजाकर रखते हैं उस समय बैलगाड़ी के बैलों को सजाया जाता था। उनके मुँह में जहां मोहरे और सींग में सिगोटी बांधी जाती, वहीं गले में घण्टी और गलगला भी। पर गलगला और घण्टी को चर्म शिल्पी चर्म पट्टिका में गूथ कर खूब सूरत बना देते थे। हर एक बैल की गले की पट्टिका के मध्य में एक घण्टी होती और अगल बगल 2- 2 गलगले गुथे रहते। इस तरह जब बैल गाड़ी लेकर चलते तो इन गलगलों और घण्टी से कर्ण प्रिय आवाज भी निकलती रहती। 

गलगला बनाने की शैली घण्टी से अलग घुघरू की तरह हुआ करती थी। यही कारण था कि घुघरू का स्थूल स्वरूप होने के कारण उसके आवाज में अलग तरह की मधुरता हुआ करती थी। पर अब तो यह अजूबा वस्तुएं किसी संग्रहालय में ही मिलेंगी। जब बैलों को घण्टी और गलगला बांधकर सजाया जाता था। 

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Wednesday, April 27, 2022

गाँव के बुजुर्ग क्यों करते थे बबूल और नीम की दातून ?

  •  डायबिटीज और हाइपरटेंशन है? यानी दातून करना भूल चुके हो...तो वापसी कीजिये...



सन 1990 से पहले कितने लोगों को डायबिटीज़ होता था? कितने लोग हाइपरटेंशन से त्रस्त थे? नब्बे के दशक के साथ हर घर में एक डायबिटीज़ और हाई ब्लड प्रेशर का रोगी आ गया, क्यों? बहुत सारी वजहें होंगी, जिनमें हमारे खानपान में बदलाव को सबसे खास माना जा सकता है। 

बदलाव के उस दौर में एक चीज बहुत ख़ास थो जो खो गयी, पता है ना क्या है वो? दातून गाँव देहात में आज भी लोग दातून इस्तमाल करते दिख जाएंगे लेकिन शहरों में दातून पिछड़ेपन का संकेत बन चुका है।

गाँव देहात में डायबिटीज़ और हाइपरटेंशन के रोगी यदा कदा ही दिखेंगे या ना के बराबर ही होंगे। वजह साफ है, ज्यादातर लोग आज भी दातून करते हैं। तो भई, डायबिटीज़ और हाइ ब्लड प्रेशर के साथ दातून का क्या संबंध, यही सोच रहे हो ना?..तो आज आपका दिमाग हिल जाएगा..और फिर सोचिएगा, हमने क्या खोया, क्या पाया?

ये जो बाज़ार में टूथपेस्ट और माउथवॉश आ रहे हैं ना, 99.9 प्रतिशत सूक्ष्मजीवों का नाश करने का दावा करने वाले, उन्हीं ने सारा बंटाधार कर दिया है। ये माउथवॉश और टूथपेस्ट बेहद स्ट्राँग एंटीमाइक्रोबियल होते हैं और हमारे मुंह के 99 प्रतिशत से ज्यदा सूक्ष्मजीवों को वाकई मार गिराते हैं। इनकी मारक क्षमता इतनी जबर्दस्त होती है कि ये मुंह के उन बैक्टिरिया का भी खात्मा कर देते हैं, जो हमारी लार (सलाइवा) में होते हैं और ये वही बैक्टिरिया हैं जो हमारे शरीर के नाइट्रेट को नाइट्राइट और बाद में नाइट्रिक ऑक्साइड में बदलने में मदद करते हैं। 

जैसे ही हमारे शरीर में नाइट्रिक ऑक्साइड की कमी होती है, ब्लड प्रेशर बढ़ता है। ये मैं नहीं कह रहा, दुनियाभर की रिसर्च स्ट्डीज़ बताती हैं कि नाइट्रिक ऑक्साइड का कम होना ब्लड प्रेशर को बढ़ाने के लिए जिम्मेदार है। जर्नल ऑफ क्लिनिकल हायपरेटेंस (2004) में 'नाइट्रिक ऑक्साइड इन हाइपरटेंशन' टाइटल के साथ छपे एक रिव्यु आर्टिकल में सारी जानकारी विस्तार से छपी है और नाइट्रिक ऑक्साइड की यही कमी इंसुलिन रेसिस्टेंस के लिए भी जिम्मेदार है। 

समझ आया खेल? नाइट्रिक ऑक्साइड कैसे बढ़ेगा जब इसे बनाने वाले बैक्टिरिया का ही काम तमाम कर दिया जा रहा है? ब्रिटिश डेंटल जर्नल में 2018 में तो बाकायदा एक स्टडी छपी थी जिसका टाइटल ही "माउथवॉश यूज़ और रिस्क ऑफ डायबिटीज़" था। 

इस स्टडी में बाकायदा तीन साल तक उन लोगों पर अध्धयन किया गया जो दिन में कम से कम 2 बार माउथवॉश का इस्तमाल करते थे और पाया गया कि 50 प्रतिशत से ज्यादा लोगों को प्री-डायबिटिक या डायबिटीज़ की कंडिशन का सामना करना पड़ा।

अब बताओ करना क्या है? कितना माउथवॉश यूज़ करेंगे? कितने टूथपेस्ट लाएंगे सूक्ष्मजीवों को मार गिराने वाले? दांतों की फिक्र करने के चक्कर में आपके पूरे शरीर की बैंड बज रही है। गाँव देहातों में तो दातून का भरपूर इस्तेमाल हो रहा है और ये दातून मुंह की दुर्गंध भी दूर कर देते हैं और सारे बैक्टिरिया का खात्मा भी नहीं करते। 

मेरे #पातालकोट में तो आदिवासी टूथपेस्ट, टूथब्रश क्या होते हैं, जानते तक नहीं। अब आप सोचेंगे कि #दीपकआचार्य  ने टूथपेस्ट और माउथवॉश को लेकर इतनी पंचायत कर ली तो दातून के प्रभाव को लेकर किसी क्लिनिकल स्टडी की बात क्यों नही की? 

तो भई, अब दातून से जुड़ी स्टडी की भी बात हो जाए। बबूल और नीम की दातून को लेकर एक क्लिनिकल स्टडी जर्नल ऑफ क्लिनिकल डायग्नोसिस एंड रिसर्च में छपी और बताया गया कि स्ट्रेप्टोकोकस म्यूटेंस की वृद्धि रोकने में ये दोनों जबर्दस्त तरीके से कारगर हैं। 

ये वही बैक्टिरिया है जो दांतों को सड़ाता है और कैविटी का कारण भी बनता है। वो सूक्ष्मजीव जो नाइट्रिक ऑक्साइड बनाते हैं जैसे एक्टिनोमायसिटीज़, निसेरिया, शालिया, वीलोनेला आदि दातून के शिकार नहीं होते क्योंकि इनमें वो हार्ड केमिकल कंपाउंड नहीं होते जो माउथवॉश और टूथपेस्ट में डाले जाते हैं। 

चलते चलते एक बात और बता दूं, आदिवासी दांतों पर दातून घुमाने के बाद एकाध बार थूकते है, बाद में दांतों पर दातून की घिसाई तो करते हैं और लार को निगलते जाते हैं? लिंक समझ आया? लार में ही तो असल खेल है। ये हिंदुस्तान का ठेठ देसी ज्ञान है बाबू ज्यादा पंचायत नहीं करुंगा, मुद्दे की बात ये है कि वापसी करो, थोड़ा भटको और चले आओ दातून की तरफ..कसम से।

बासी पानी जे पिये, ते नित हर्रा खाय। मोटी दतुअन जे करे, ते घर बैद न जाय।।

@Swami Devaishta Pravin Goswami की फेसबुक वॉल से साभार 

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देसी गाय पालने वाले किसानों को प्रतिमाह 900 रुपये देगी सरकार

  • प्राकृतिक कृषि को प्रोत्साहित करने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने की घोषणा 
  • किसानों को कृषि किट लेने के लिए 75 प्रतिशत तक राशि उपलब्ध कराई जाएगी


मध्य प्रदेश में प्राकृतिक कृषि को प्रोत्साहित करने के लिए सरकार किसानों को देसी गाय रखने पर प्रतिवर्ष दस हजार 800 रुपये यानी प्रतिमाह नौ सौ रुपये का अनुदान देगी। प्राकृतिक कृषि किट लेने के लिए 75 प्रतिशत तक राशि भी उपलब्ध कराई जाएगी। खरीफ सीजन से पांच हजार 200 गांवों में प्राकृतिक खेती की गतिविधियां प्रारंभ की जाएंगी। प्रदेशभर में कार्यशालाएं होंगी और प्रत्येक विकासखंड में पांच-पांच पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं की सेवाएं भी उपलब्ध कराई जाएंगी। यह बड़ी व महत्वपूर्ण घोषणा प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने की है। 

उल्लेखनीय है कि कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के लिए केंद्र सरकार से बजट में अधिक आवंटन के साथ सक्रिय कदम उठाने का आग्रह किया है। इसी कड़ी में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने राज्य में जून से 5,200 गावों में प्राकृतिक खेती शुरू करने की घोषणा की है। उन्होंने कहा कि राज्य में देसी गायों की देखरेख के लिए सरकार किसानों को प्रतिमाह 900 रुपये की मदद भी देगी। चौहान ने सोमवार को नवोन्मेषी खेती पर आयोजित एक राष्ट्रीय कार्यशाला में कहा कि विभिन्न फसलों के उत्पादन को बढ़ाने के लिए रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का उपयोग बढ़ा है।

रासायनिक उर्वरकों के बहुत अधिक इस्तेमाल के कारण मृदा की "सेहत" खराब हुई है, जिसे रोकने की जरूरत है। मुख्यमंत्री ने कहा कि केंद्र सरकार उर्वरक सब्सिडी के लिए किसानों को 1.8 लाख करोड़ रुपये देती है और इसी तरह प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के लिए किसानों को सब्सिडी दी जानी चाहिए। शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि हरित क्रांति में रसायनिक खाद के उपयोग ने खाद्यान्न की कमी को पूरा किया, परंतु अब इसके घातक परिणाम सामने आ रहे हैं।

धरती की सेहत सुधारने प्राकृतिक खेती जरूरी 

रसायनिक खाद और कीटनाशकों के उपयोग से धरती की सतह कठोर और मुनष्य रोग ग्रस्त होता जा रहा है। इसके उपयोग को नियंत्रित करने की आवश्यकता है, जो प्राकृतिक खेती से ही संभव है। उन्होंने कहा कि यदि धरती मां को रसायनिक खाद और कीटनाशकों से बचाना है और आने वाली पीढ़ियों के लिए धरती को रहने और अन्न उत्पादन के लायक बनाए रखना है, तो प्राकृतिक खेती को अपनाना होगा। मध्यप्रदेश में प्राकृतिक खेती को प्रोत्साहन देने के लिए प्राकृतिक कृषि विकास बोर्ड का गठन किया गया है। प्राकृतिक खेती अपनाने के लिए ग्राम स्तर तक वातावरण बनाने और इसमें किसानों की सहायता करने के लिए राज्य सरकार कई कदम उठा रही है।

शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि मध्यप्रदेश में 52 जिले हैं। प्रारंभिक रूप से प्रत्येक जिले के 100 गांव में प्राकृतिक खेती को प्रोत्साहित करने के लिए विशेष गतिविधियां संचालित की जाएंगी। वर्तमान खरीफ की फसल से प्रदेश के 5,200 गांव में प्राकृतिक खेती की गतिविधियां आरंभ होंगी। वातावरण-निर्माण के लिए प्रदेश में कार्यशालाओं का आयोजन किया जाएगा। उन्होंने कहा कि अब तक प्रदेश के 1 लाख 65 हजार किसानों ने प्राकृतिक खेती में रूचि दिखाई है। नर्मदा जी के दोनों ओर प्राकृतिक खेती को प्रोत्साहित किया जाएगा।

प्राकृतिक खेती के लिए देसी गाय आवश्यक

जिस प्रकार हरित क्रांति के लिए किसानों को रासायनिक खाद पर सबसिडी और अन्य सहायता उपलब्ध कराई गई उसी प्रकार प्राकृतिक खेती अपनाने के लिए किसानों को प्रोत्साहन देना और सहयोग करना आवश्यक है। प्राकृतिक खेती के लिए देसी गाय आवश्यक है। देसी गाय से ही प्राकृतिक खेती के लिए आवश्यक जीवामृत और धनजीवामृत बनाए जा सकते हैं। मुख्यमंत्री चौहान ने कहा कि प्राकृतिक खेती अपनाने वाले किसानों को देसी गाय रखने के लिए 900 रुपये प्रति माह यानी 10 हजार 800 रूपए प्रतिवर्ष उपलब्ध कराए जाएंगे।

साथ ही प्राकृतिक कृषि किट लेने के लिए किसानों को 75 प्रतिशत राशि सरकार की ओर से उपलब्ध कराई जाएगी। प्राकृतिक खेती के मार्गदर्शन के लिए प्रत्येक विकासखंड में 5 पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं की सेवाएं उपलब्ध कराई जाएंगी। प्रत्येक गांव में किसान मित्र और किसान दीदी की व्यवस्था भी होगी, जो प्राकृतिक खेती के मास्टर ट्रेनर के रूप में कार्य करेंगे। कार्यकर्ताओं और मास्टर ट्रेनर को मानदेय भी दिया जाएगा।

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Tuesday, April 26, 2022

पन्ना जिले की 4 बालिकाएं वाघा बार्डर का करेंगी भ्रमण


पन्ना। मध्यप्रदेश के पन्ना जिले की 4 बालिकाएं वाघा बार्डर का करेंगी भ्रमण करेंगी। अधिकृत जानकारी के अनुसार आगामी 2 से 11 मई तक लाड़ली लक्ष्मी उत्सव मनाया जाएगा। खेल एवं युवा कल्याण  विभाग द्वारा मां तुझे प्रणाम कार्यक्रम के तहत महिला एवं बाल विकास विभाग की लाड़ली लक्ष्मी योजना की 4 हितग्राही बालिकाओं को अंतर्राष्ट्रीय सीमा वाघा-हुसैनीवाला (पंजाब) का भ्रमण का अवसर मिला है। 2 मई को बालिकाएं भ्रमण के लिए रवाना होंगी। इन बालिकाओं में पन्ना शहर के रानीगंज मोहल्ला की मितांशी रैकवार, इन्द्रपुरी कालोनी की अर्पिता रजक, ग्राम खिरवा की मांडवी सिंह और सिविल लाइन की अमीषा चतुर्वेदी शामिल हैं।

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ऐसा गांव जहाँ बाघ, तेंदुआ और आदिवासी एक ही जलश्रोत का पीते हैं पानी

  • कटहरी व बिलहटा गांव के लिए गहरे सेहा की झिरिया ही है सहारा    
  • भीषण गर्मी में नल से दूर हो रहा जल, कुँआ और तालाब सूख रहे

जंगल के सेहा में स्थित बिलहटा झिरिया जहाँ आदिवासी पानी लेने आते हैं। 

।। अरुण सिंह ।।

तपिश बढऩे के साथ ही मध्य प्रदेश के गांव व शहर भीषण जल संकट की चपेट में हैं। गांव में जहां पानी के लिए त्राहि-त्राहि मची है, वहीं शहरों में भी कहीं एक दिन तो कहीं दो दिन छोड़कर पानी दिया जा रहा है। जल स्तर नीचे खिसकने से कुआ सूख रहे हैं तथा हैंडपंपों से पानी की जगह गर्म हवा निकल रही है। पन्ना जिले के कटहरी व बिलहटा गांव के आदिवासी जंगल की उसी झिरिया का पानी पीते हैं जहाँ बाघ, तेंदुआ और भालू जैसे वन्य प्राणी भी पानी पीने आते हैं।  

पन्ना । भीषण गर्मी में जब कुँआ, तालाब और हैंडपंप सब दगा दे गए हों, ऐसे समय लू के गर्म थपेड़ों के बीच गला तर करने के लिए पानी की व्यवस्था करना कितना कठिन और जोखिम भरा काम है, यह जंगल में बसे पन्ना जिले के आदिवासी गांव कटहरी,बिलहटा और कोनी में देखा जा सकता है। इन ग्रामों में पानी से ज्यादा महत्वपूर्ण और कोई चीज नहीं है। "जल ही जीवन है" इस बात का प्रगाढ़ता से अनुभव इन ग्रामों में होता है।

जिला मुख्यालय पन्ना से लगभग 60 किलोमीटर दूर पन्ना टाइगर रिजर्व के हिनौता वन परिक्षेत्र में बसे बिलहटा गांव की आदिवासी महिला नन्हीं बहू ने बताया कि हम रोजाना जान जोखिम में डालकर गहरे सेहा में स्थित बिलहटा झिरिया से पीने के लिए पानी लाते हैं। घने जंगल के बीच सेहा में तकरीबन 100 फीट नीचे उतरकर आदिवासी महिलाएं व बच्चे यहां पहुंचते हैं और पानी सिर में रखकर ढाई किलोमीटर दूर गांव तक ले जाते हैं। बिलहटा निवासी ठाकुरदीन गोंड़ 45 वर्ष बताते हैं कि हमारे गांव में कुल 60 घर हैं, सभी आदिवासी हैं। लगभग 400 की आबादी वाले इस गांव में कोई जल स्रोत नहीं है, एक हैंडपंप लगा है जिसमें पानी नहीं है। ऐसी स्थिति में सिर्फ बिलहटा झिरिया ही एकमात्र सहारा है, जिसके पानी से दो गांव के लोगों की प्यास बुझती है।


इस पूरे इलाके में प्रचुर संख्या में वन्य प्राणी स्वच्छंद रूप से विचरण करते हैं। बाघ, तेंदुआ व भालू जैसे वन्य प्राणियों की भी यहां के जंगल में अच्छी तादाद है। हैरत की बात तो यह है कि इसी झिरिया में वन्य प्राणी भी पानी पीने आते हैं, जहां से आदिवासी महिलाएं रोज पानी ले जाती हैं। सेहा के ऊपर दोनों गांव कटहरी और बिलहटा बसे हैं। इन दोनों गांव से झिरिया (जलस्रोत) की दूरी ढाई किलोमीटर है, जहां पहुंचने के लिए जंगल के बीच से पगडंडी है। उबड़-खाबड़ पत्थरों वाली इसी पगडंडी से गांव के लोग नीचे झिरिया तक जाते हैं। केसरबाई निवासी कटहरी ने बताया कि बाघ, तेंदुआ और भालू का खतरा हमेशा बना रहता है क्योंकि वे भी यहीं पानी पीने आते हैं। वे आगे बताती हैं कि नखा वाले इन जानवरों के डर से हम लोग कभी अकेले पानी लेने नहीं जाते, हमेशा 8-10 के समूह में जाते हैं। 

वहीं पास में मौजूद बैजू आदिवासी बड़ी बेफिक्री से कहते हैं कि साहब हम लोग इसी जंगल में जानवरों के साथ पले बढ़े हैं, इसलिए हमें डर नहीं लगता। वे बताते हैं कि जंगली जानवर ज्यादातर सुबह व शाम के समय पानी पीने जाते हैं, इसलिए हम लोग दिन निकलने के बाद ही झिरिया में जाकर पानी लेते हैं। जंगली जानवरों व हमारे बीच यह तालमेल बना रहता है, इसलिए कभी उनसे टकराव नहीं होता। बिलहटा गांव की तरह कटहरी में भी कोई जलस्रोत नहीं है, सिर्फ एक हैंडपंप लगा है जिसका पानी ठीक नहीं है। कटहरी में लगभग 60 घर हैं तथा यहां की आबादी 300 के आसपास है। इन दो गांवों जैसी स्थिति है कोनी की भी है। कोनी गांव के पास भी सेहा है, जहां स्थित झिरिया से गांव के लोग पानी लाते हैं। वन कर्मचारियों का कहना है कि झिरिया में बारहों महीना पानी बना रहता है। जिसके पानी से वन्य प्राणियों के साथ-साथ आदिवासी भी अपनी प्यास बुझाते हैं।

 सूख चुके हैं प्रदेश के 34 फ़ीसदी कुंए




मध्यप्रदेश में भूजल स्तर कितनी तेजी से नीचे खिसक रहा है, इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अप्रैल के महीने में ही प्रदेश के 34 फीसदी कुएं सूख चुके हैं। राजस्थान के बाद मध्य प्रदेश में सबसे अधिक कुओं के जलस्तर में गिरावट दर्ज की गई है। केंद्रीय भूजल बोर्ड के आकलन के मुताबिक प्रदेश के 34 फ़ीसदी कुओं का जलस्तर तेजी से गिरा है। कुछ जिलों की हालत चिंताजनक बताई गई है, जिनमें कटनी, सागर, सिवनी, दमोह, छतरपुर, पन्ना, डिंडोरी, बड़वानी, नर्मदापुरम, झाबुआ व अलीराजपुर शामिल हैं।

स्वास्थ्य विभाग की रिपोर्ट बताती है कि प्रदेश के 2228 अस्पताल पीने के पानी के संकट से जूझ रहे हैं। इनमें आदिवासी बहुल इलाकों की स्थिति ज्यादा खराब है। छिंदवाड़ा में सबसे ज्यादा 290, सिवनी में 129, डिंडोरी में 188, बड़वानी में 168, मंदसौर में 160 तथा रतलाम में 150 से ज्यादा अस्पताल पानी के संकट से जूझ रहे हैं। प्रदेश के चिकित्सा शिक्षा मंत्री विश्वास सारंग स्वीकार करते हैं कि पानी की किल्लत है लेकिन उसे जल्दी ही दूर करेंगे।

हर घर में नल से जल पहुंचाने का कैसे पूरा होगा लक्ष्य ?



जल जीवन मिशन द्वारा 2024 तक मध्य प्रदेश में हर घर में नल से जल पहुंचाने का लक्ष्य रखा गया है। लेकिन प्रदेश के ग्रामीण इलाकों की जैसी हालत है उसे देखते हुए सोचने वाली बात है कि यह लक्ष्य कैसे पूरा होगा ? प्रदेश में 12 से 14 हजार गांव ऐसे हैं जहां भूमिगत जल का स्तर बहुत नीचे पहुंच गया है, इन ग्रामों में घरों तक नल से पानी पहुंचाना बड़ी चुनौती है। जल जीवन मिशन का यह दावा है कि अब तक 48 लाख 94 हजार 774 ग्रामीण परिवारों तक नल से जल मुहैया कराया जा चुका है। प्रदेश में एक करोड़ 22 लाख ग्रामीण परिवारों को नल कनेक्शन दिए जाने का लक्ष्य है, जिसमें 40 प्रतिशत से ऊपर लक्ष्य प्राप्त किया जा चुका है।

महिलाओं को घर गृहस्ती से ज्यादा पानी की चिंता

प्रदेश के बुंदेलखंड अंचल में भूजल के स्तर में तेजी से गिरावट होने के कारण कुआं सूख रहे हैं तथा हैंडपंपों से भी पानी नहीं निकल रहा। ऐसी स्थिति में पानी के लिए महिलाओं को भारी जद्दोजहद करना पड़ रहा है। महिलाओं व बच्चियों का ज्यादा समय पानी की व्यवस्था में जा रहा है। सिलगी गांव के इंद्रमणि पांडे 71 वर्ष बताते हैं कि गांव के कुओं में पानी नहीं बचा, हैंडपंप भी जवाब दे गए हैं। ऐसी स्थिति में खेतों के बोरवेल से पानी ढोकर ग्रामवासी लाते हैं। पानी के इंतजाम में ही पूरा दिन निकल जाता है, बड़ी परेशानी है। लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग की वेबसाइट के मुताबिक प्रदेश में कुल 557311 हैंडपंप हैं, जिनमें 23556 हैंडपंप बंद हैं।

केन नदी की अप्रैल में ही टूट गई धार

बुंदेलखंड क्षेत्र की जीवन रेखा कही जाने वाली केन नदी अप्रैल के महीने में ही दम तोड़ रही है। केन की जलधार टूट चुकी है तथा प्रवाह क्षेत्र में चट्टाने नजर आ रही हैं। इस नदी में भारी-भरकम मशीनों द्वारा व्यापक पैमाने पर रेत का उत्खनन होने से केन किनारे स्थित ग्रामों को भी जल संकट का सामना करना पड़ रहा है। केन नदी में पानी कम होने से सैकड़ों मछुआरों, मल्लाहों तथा नदी तट पर खेती करने वाले किसानों का जीवन बुरी तरह से प्रभावित हुआ है।

जल संकट पर मुख्यमंत्री ने ली आपात बैठक



प्रदेश में बढ़ते जल संकट की गंभीरता को देखते हुए सोमवार 25 अप्रैल को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भोपाल में संबंधित विभागों की आपात बैठक ली है। उन्होंने कहा कि अधिकारी मैदानी स्तर की केवल अच्छी स्थिति ही नहीं दिखायें, समस्याओं की भी जानकारी दें। समस्याओं का समाधान करना और आवश्यक समन्वय कर हल निकालना हमारी जिम्मेदारी है। मुख्यमंत्री श्री चौहान ने कहा है कि पूरे प्रदेश से पानी की समस्या बाबत जानकारी मिल रही है, ऐसे समय पर लोगों को राहत देना हमारा कर्तव्य है। उन्होंने समस्या ग्रस्त इलाकों में तत्काल राहत देने के साथ-साथ स्थाई समाधान निकालने के भी निर्देश दिए हैं।

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Friday, April 22, 2022

पहले गाय, बैलों से किसान का होता था एक मूक समझौता, अब नहीं रहा !


 ।। बाबूलाल दाहिया ।। 

इन दिनों नरवई जलाने की अनेक घटनाएँ सुनाई पड़ रही हैं। कहीं-कहीं तो आग अपना बिकराल रूप धर आगे बढ़ती आस-पास की फसल और मकान आदि भी जला देती है। पर मनुष्य के ऊपर यह ह्रदय हीन ब्यापार संस्कृति ऐसी हाबी हो चुकी है कि वह पशुओं और जीव जंतुओं  के भोजन जलाने के अपने इस धतकर्म से बाज ही नहीं आ रहा।

खेती लगभग 8 --10 हजार वर्ष पुरानी है, जिसे किसान करता चला आ रहा है। पहले जमीन में झाड़ झंखाड़ जला और बीज छिड़क कर। फिर लकड़ी हड्डियों से भूमि को खुरच कर एवं अंत में जब आज से लगभग 2800 वर्ष के आस पास लौह अयस्क की खोज कर ली तो हल बैल से जमीन को जोत कर। इस बैल और मनुष्य के साझेदारी की खेती में जमीन की उर्वरता का एक टिकाऊपना था ।क्योंकि न सिर्फ बैल हल में चलते थे बल्कि उनके गोबर की खाद खेत को उपजाऊ भी बनाती रहती थी। फिर मिलमा खेती और अंतरवर्ती खेती का भी वह ऐसा फसल चक्र अपनाता था, जिससे भूमि की उर्वर शक्ति हमेशा बनी रहती थी।

उस समय की ब्यवस्था देख ऐसा लगता था कि किसान का गाय बैलों से एक मूक समझौता होता था कि " बैल हल में चले और किसान हल चलाये साथ ही  बैलों की देख भाल भी करे। किन्तु जो उत्पादन में अनाज हो वह मनुष्य का और भूसा, चारा, चुनी, चोकर बैल का। बैल ने गोबर किया किसान ने उसकी खाद बनाई और गाड़ी में भरा भी। पर खेत तक गाड़ी खींच कर बैल ही ले गये परन्तु अपने - अपने हिस्से के लाभ का समान बटवारा।"

एक समझौता यह भी कि गाय बैल बूढ़े हो जाय तो किसान अपने बूढ़े माँ बाप व परिवार की तरह जीवन पर्यंत  उनकी भी सेवा करे और उनके खाने पीने की पूरी ब्यवस्था करें। पर साठ-सत्तर के दशक में यह हरित क्रांति क्या आई, लोगो को किसान के बजाय ह्रदय हीन ब्यापारी ही बना दिया, जिसका माई बाप सब कुछ पैसा हो गया। जिस चारे भूसे के लिए वह 50-60 के दशक में अपने खाने से अधिक  गाय बैल के खाने के लिए चिंतित  रहता था अब उन्हें घर से निकाल हारवेस्टरर से फसल का तो दाना- दाना निकाल लेता है। पर भूसा बनाने के बजाय नरबई को ही आग के हवाले कर देता है।

घर से निकाले गाय बैल अब भूख से मरे, चाहे प्यास से उसकी बला से? भला बताइये यह किसान है या पूरा कसाई ?  क्योंकि प्रकृति ने जो भी अनाज बनस्पतियों को बनाया है वह सभी जन्तुओ के लिए। अनाज और घास के जो दाने जमीन में झड़ते हैं, उन्हें चिड़िया अगली फसल आने तक चुगती रहती हैं।चीटियां बीज को उठा अपने बिलो में संग्रहीत कर लेती हैं। पर जब मीलों लम्बे चौड़े दायरे में आग लगा दी जाती है तब तो वह जीव जन्तु भी वहीं जल जाते हैं। 

भला बताइए कि मनुष्य अपने 8-10 सदस्यीय परिवार के सुख सुबिधा और ऐसो आराम के लिए कितना घृणित कार्य कर रहा है।  जिसमें वह न सिर्फ आस पास के पशु पक्षियों और लाखों करोड़ो जीवो का भोजन छीन लेता है, बल्कि मीलों लम्बे चौड़े दायरे में भून कर उनकी जान भी ले लेता है।

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Thursday, April 21, 2022

शासकीय भूमि में अतिक्रमण करके बने एप्पल रिसोर्ट पर चला बुलडोजर

  • 2 करोड़ 50 लाख रूपए से अधिक कीमत की 3 एकड़ शासकीय भूमि अतिक्रमण मुक्त
  • शासकीय जमीनों पर कब्जा करके अवैध निर्माण करने वाले भू-माफियाओं में हड़कंप 

प्रशासनिक अमले की मौजूदगी में एप्पल रिसोर्ट कॉटेज को ध्वस्त करती जेसीबी मशीन 

पन्ना। मध्यप्रदेश के पन्ना शहर से लगे एनएमडीसी मझगवां मोड़ पर नेशनल हाईवे 39 के किनारे बेशकीमती शासन की भूमि में बने एप्पल रिसोर्ट को आज बुलडोजर से जमींदोज कर दिया गया। मालूम हो कि प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के निर्देश पर संपूर्ण मध्यप्रदेश में भू- माफियाओं से शासकीय एवं सर्वजनिक जमीने मुक्त कराई जा रही हैं।

इसी क्रम में गुरुवार को पन्ना कलेक्टर संजय कुमार मिश्र के निर्देश पर राजस्व, पुलिस और नगर पालिका की संयुक्त टीम ने करीब 3 एकड़ शासकीय भूमि में अवैध रूप से कब्जा कर बनाए गए एप्पल रिसोर्ट पर कार्रवाई की गई है। इस दौरान पन्ना एसडीएम सत्यनारायण दर्रो, पन्ना तहसीलदार दीपाली जाधव, मुख्य नगरपालिका अधिकारी एकता अग्रवाल, कोतवाली निरीक्षक अरुण कुमार सोनी, नगर पालिका निरीक्षक एवं अतिक्रमण दस्ता प्रभारी मनीष महदेले के साथ राजस्व विभाग, नगर पालिका एवं भारी संख्या में पुलिस बल की मौजूदगी में अतिक्रमण हटाने की यह कार्यवाही हुई। 


अधिकृत जानकारी के मुताबिक पन्ना की शासकीय भूमि खसरा नम्बर 84/1 रकवा 57.354 हेक्टेयर के अंश रकवा लगभग 3 एकड़ की 2 करोड़ 55 लाख रूपये अनुमानित कीमत की भूमि अतिक्रमण मुक्त कराई गई। अनावेदक अकरम सिद्दीकी पिता मोहम्मद अनीस सिद्दीकी निवासी ग्राम पन्ना हाल निवासी रीवा द्वारा शासकीय भूमि पर एप्पल रिसोर्ट बनाया गया था। इसके अतिरिक्त तार बाउंड्री बनाकर और अन्य तरीके से किए गए अवैध कब्जा को अतिक्रमण मुक्त किया गया। शासकीय भूमि को अतिक्रमण मुक्त कराने के लिए जेसीबी मशीनों से एप्पल रिसोर्ट को जमींजोद कर दिया गया। बताया जा रहा है कि पन्ना जिले में कई लोगों के द्वारा शासकीय जमीनों पर कब्जा कर अवैध निर्माण किए गए हैं, अगली बारी किसकी होगी यह सोचकर भू माफियाओं में हड़कंप मचा हुआ है।

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भीषण गर्मी में सेहत के लिए वरदान है बेल का शर्बत, लू से भी करता है बचाव

  • बेल का शर्बत गर्मियों में सेहत के लिए वरदान माना जाता है। तपिश भरी गर्मी में लू लग जाना एक आम समस्या है। ऐसे समय बेल का शर्बत शरीर को जहाँ ठंढक पहुंचता है, वहीं लू से भी बचाता है। 

बिल्हा गांव की मंजू सोनी बेल का शर्बत बनाते हुए। 
।। अरुण सिंह ।।

बेल हमारे देश के प्राचीन फलों में से एक है। बेल के लिए कहा जाता है- 'रोगान बिलति भिन्नति इति बिल्व" अर्थात जो रोगों का नाश करे वह बेल कहलाता है। बेल की जड़, पत्ते, छाल, शाखाएं और फल सभी का आयुर्वेद में औषधीय महत्व है। प्राचीन काल में बेल फल की उपयोगिता को स्वीकार करते हुए इसे श्रीफल की संज्ञा भी दी गयी थी। मध्यप्रदेश के जंगलों में बेल के वृक्ष प्राकृतिक रूप में बहुतायत से पाये जाते हैं। प्रदेश के पन्ना टाइगर रिज़र्व के जंगल में तो बेल के वृक्षों की तादाद हजारों में है। इस वृक्ष की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसे हर तरह की बंजर भूमि यथा-ऊसर, बीहड़, खादर, शुष्क एवं अर्द्धशुष्क में भी लगाया जा सकता है। पोषक तत्वों की बात की जाये तो बेल में विटामिन ए, बी, सी से लेकर खनिज तत्व और कार्बोहाइट्रड की भरपूर मात्रा पायी जाती है। औषधि गुणों से भरपूर होने के कारण घरों में इसका शरबत और मुरब्बा बनाकर रखा जाता है।

जैव विविधता के संवर्धन तथा जैविक खेती को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे पद्मश्री बाबूलाल दाहिया ने चर्चा करते हुए बताया कि बेल का फल अप्रैल से पकना शुरू होता है तो जून तक पके फल मिलते रहते हैं। इसके पके फल ही उपयोग में लाए जाते हैं। बेल का डंठल इतना मजबूत होता है कि पक कर भी लम्बे समय तक फल पेड़ में ही लगा रहता है, लेकिन जून में सभी पके फल झड़ जाते हैं और सूखने के बाद बरसात में फल के अन्दर बीज जम कर आवरण के बाहर आकर जमीन में उग आता है। प्रकृति ने इसे अन्य पशु पक्षियों के बजाय मात्र हाथी के खाने के लिए ही बनाया था ताकि वह पके फल को पेड़ से तोड़कर खा ले और अपने मल द्वारा दूर-दूर तक  बेल के बीज को फैलाने का काम करे। साथ ही बरसात में जमते समय पौधे के लिए खाद की भी आपूर्ति करे। बंदरों को छोड़कर बाकी पशु पक्षी इसे नहीं खा पाते। मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जिसने सभी प्रकृति प्रदत्त भोजन को अपना बना लिया है, अस्तु अप्रैल से शर्बत पीना शुरू करता है तो जून तक चलता रहता है।

पन्ना जिले के ग्राम बिल्हा निवासी मंजू सोनी के घर में बेल का पेड़ लगा है जो इस समय फलों से लदा हुआ है। वे बताती हैं कि पूरी गर्मी हम लोग बेल का शर्बत पीते हैं जिससे गर्मी से तो राहत मिलती ही है लू से भी बचाव होता है। आपने बताया कि अप्रैल के महीने से लेकर पूरे मई के महीने में जब तपिश उफान पर रहती है, पेड़ से बेल के पके फल मिलते रहते हैं। हम तो पूरी गर्मी भर शर्बत पीते ही हैं मुहल्ले पड़ोस के लोग भी पके फल शर्बत बनाने ले जाते हैं।   

बेल में पाए जाने वाले पोषक तत्व 


बिल्हा गांव में फलों से लदा बेल का वृक्ष 

बेल फल का बानस्पतिक नाम "लिमोनिया एसिडिसिमा" है। बेल फल को लकड़ी सेव, हांथी एप्पल और बन्दर फल जैसे नामों से भी जाना जाता है। यह हांथियों का पसंदीदा भोजन है। इसलिए इसका नाम हांथी एप्पल एवं चूँकि खोल हार्ड लकड़ी का बना होता है इसलिए इसे लकड़ी सेव भी कहते हैं। गर्मी के मौसम में प्रकृति प्रदत्त इस तोहफे बेल के फल में विटामिन और पोषक तत्वों की भरमार होती है। बेल में मौजूद टैनिन और पेक्टिन मुख्य रुप से डायरिया और पेचिश के इलाज में अहम भूमिका निभाते हैं। इसके अलावा बेल के फल में विटामिन सी, कैल्शियम, फाइबर, प्रोटीन और आयरन भी अधिक मात्रा में मिलते हैं। बेल के नियमित सेवन से शरीर के लिए आवश्यक पोषक तत्वों की आपूर्ति होती है साथ ही शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ती है।

बेल फल का इस तरह कर सकते हैं उपयोग  



पन्ना जिले के ग्राम सिलगी निवासी कृषि विभाग के सेवानिवृत्त कर्मचारी इन्द्रमणि पाण्डे 72 वर्ष ने बताया कि बुन्देलखण्ड क्षेत्र में अप्रैल और मई के महीने में जब गर्म लू के थपेड़े चलते हैं उस समय गर्मी और लू के प्रकोप से बचने के लिए लोग बेल शरबत का सेवन करते हैं। वे बताते हैं कि बेल को आप कई तरीकों से खा सकते हैं। आमतौर पर बेल का रस या बेल के शरबत का इस्तेमाल सबसे ज्यादा किया जाता है। बेल का शरबत शरीर को ठंडक पहुंचाता है और शरीर को लू से बचाता है। इसके सेवन से शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता भी है। धूप में निकलने से पहले एक गिलास बेल का शरबत पीकर निकलें, तो लू नहीं लगती। आप इस फल को तोड़कर सीधे भी खा सकते हैं। इसका बाहरी हिस्सा काफी कठोर होता है, उसे तोड़ दें और अंदर के लिसलिसे गूदे में से बीज को निकालकर खाएं या रात भर इस गूदे को पानी में भिगोकर रखें और अगली सुबह इसे खाएं। कई लोग इसके गूदे को सुखाकर उसका चूर्ण बनाकर सेवन करते हैं जिसे बेलगिरी चूर्ण कहा जाता है। इसके अलावा बेल की पत्तियों का रस भी बहुत गुणकारी है और कई बीमारियों में इसका इस्तेमाल किया जाता है। आप घर पर ही बेल का मुरब्बा बनाकर भी उसका सेवन कर सकते हैं। 

बेल का शरबत बनाने की सामग्री व विधि

  • एक पका बेल फल
  • एक लीटर पानी
  • एक नींबू 
  • एक चम्मच काला नमक
  • चीनी या गुड़ स्‍वादानुसार

पूर्णिमा गोरे 

पूर्णिमा गोरे रिटायर्ड शिक्षिका 81 वर्ष निवासी बेनीसागर पन्ना ने बताया कि औषधीय गुणों से भरपूर तथा रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाले बेल के शरबत को आप बड़ी आसानी से अपने घर पर ही बना सकते हैं। आपने बताया कि बेल का शरबत बनाने के लिए सबसे पहले बेल के फल को तोड़कर इसके बाहरी मोटे छिलके को इसके गूदे से अलग कर लें। अब गूदे में से इसके बीज निकाल लें। ध्यान रखें कई बार बेल के फल के बीज के आस-पास बहुत सारा जैल लगा होता है, जो स्वाद में कड़वा होता है। इसे यदि हटाया न किया जाए तो शरबत में भी कड़वाहट आने लगती है। इसके बाद एक बड़े बाउल में बेल के फल का गूदा लें और उसमें पानी डाल कर अच्‍छी तरह से मिक्‍स करें।

ऐसा करने से आप गूदे को अच्‍छे से मिक्‍स भी कर पाएंगे और उसमें मौजूद बीज भी अलग हो जाएंगे। अब एक बड़ी छन्‍नी से इस मिश्रण को छान लें। छन्‍नी में थोड़ा और पानी डालें ताकि जितना हो सके गूदे से रस निकल जाए। अब आप इसमें अपने स्‍वादानुसार चीनी या गुड़ डालकर मिक्स करें। जब चीनी व गुड़ घुल जाये तो एक चम्मच अथवा स्वादानुसार काला नमक डालें तथा नींबू का रस निचोड़ें। यदि आप चाहें तो इसमें बर्फ के टुकड़े भी डाल सकते हैं। अब आपका स्वादिस्ट बेल का शर्बत तैयार है, जिसे सर्व कर सकते हैं। 

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Monday, April 18, 2022

ललितपुर-सिंगरौली रेल परियोजना के कार्यों की हुई समीक्षा

  • पन्ना में रेल सुविधाओं का होगा विकास :  रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव
  • सांसद एवं खनिज साधन मंत्री ने खजुराहो में रेल मंत्री से की चर्चा

रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव ने गत दिवस खजुराहो में जनप्रतिनिधियों और अधिकारियों के साथ ललितपुर-सिंगरौली रेल परियोजना के कार्यों की समीक्षा की।

पन्ना। भारत सरकार के रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव ने गत दिवस खजुराहो के महाराजा छत्रसाल कन्वेंशन सेंटर में जनप्रतिनिधियों और अधिकारियों के साथ ललितपुर-सिंगरौली रेल परियोजना के कार्यों की समीक्षा की। इस दौरान परियोजना अंतर्गत लंबित और अधूरे कार्यों को समय-सीमा में पूरा कराने के लिए अधिकारियों को निर्देशित किया गया।

इस अवसर पर खजुराहो सांसद विष्णुदत्त शर्मा और खनिज साधन एवं श्रम मंत्री बृजेन्द्र प्रताप सिंह ने रेल मंत्री को पन्ना में रेल सुविधाओं के विकास और विस्तार की आवश्यकता के संबंध में प्रमुखता से अवगत कराया। मंत्री श्री सिंह ने सांसद के माध्यम से पन्ना में रेल सुविधाओं के विकास की मांग रखी। साथ ही वन विभाग से संबंधित मामलों के त्वरित निराकरण, रेल लाइन शीघ्र शुरू कराने, पर्यटन गतिविधि को बढ़ावा देने के लिए पन्ना को भी वंदे भारत ट्रेन की सौगात प्रदान करने और अर्जित भूमि के मुआवजा वितरण सहित आश्रितजनों को नौकरी तथा पन्ना जिले में नई रेल लाइन के सर्वे से संबंधित मांग पर भी चर्चा की गई। बताया गया की पन्ना में रेल सुविधाओं के विस्तार से आवागमन की बेहतर सुविधा के साथ ही सीमेंट और लाइम स्टोन इंडस्ट्री एवं पर्यटन गतिविधियों को भी बढ़ावा मिलेगा। रेल मंत्री द्वारा सांसद और खनिज साधन मंत्री की मांग पर पन्ना में रेल सुविधा के विकास के लिए आश्वासन दिया गया।

प्रथम चरण में शुरू होगी पन्ना-सतना रेल लाइन  

खनिज साधन मंत्री श्री सिंह ने रेल मंत्री श्री वैष्णव को पन्ना-सतना रेल्वे लाइन के निर्माण में कोई व्यवधान नहीं होने के कारण शीघ्र निर्माण कार्य शुरू कराने के लिए अनुरोध किया गया। रेल मंत्री श्री वैष्णव ने खनिज मंत्री श्री सिंह की मांग पर तत्काल कार्य शुरू कराने का आश्वासन दिया। उन्होंने पन्ना-सतना रेल खण्ड का कार्य शीघ्र पूर्ण कराने और प्रथम चरण में पन्ना-सतना रेल लाइन को शुरू कराने की बात कही। रेल मंत्री ने कहा कि रेल सुविधाओं के विस्तार के लिए बिना अवरोध वाले अन्य कार्यों को भी तत्काल पूर्ण कराया जाएगा।

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देखकर सहसा हुआ शुक मौन है, सोचता है अन्य शुक यह कौन है ?


मानव स्वभाव सौन्दर्योपासक है, भाषा को सुन्दर बनाने के लिए अलंकार का इस्तेमाल होता है, गाहेबगाहे इसमें परिंदों का भी जिक्र आता है। मैथिली शरण गुप्त द्वारा रचित "साकेत" की ये पंक्तियाँ याद आती हैं जिसमें उन्होंने उर्मिला (लक्षमण की पत्नी) के सौन्दर्य का वर्णन किया है:

नाक का मोती अधर की कान्ति से,

बीज दाड़िम का समझकर भ्रान्ति से।

देखकर सहसा हुआ शुक मौन है।

सोचता है अन्य शुक यह कौन है?

उपरोक्त पंक्तियों की व्याख्या जो मैं समझ पाया हूँ, यह है कि उर्मिला की नाक की नथ में जड़ित मोती पर जब ओठों की लाल आभा पड़ती है; तब वह अनार (दाड़िम) के बीज की तरह लगता है, जिससे तोते (शुक) को भ्रम हो जाता कि चोंच में अनार का दाना लिए कोई और तोता बैठा है!! पाठशालाओं में इसे भ्रान्तिमान अलंकार के उदहारण के रूप में पढ़ाया जाता रहा है।

@ अनिल नागर सेवानिवृत्त वन अधिकारी 

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Sunday, April 17, 2022

केक काटकर अनूठे अंदाज में मनाया गया बाघ का जन्मदिन

  •  मध्यप्रदेश के पन्ना में है जंगली बाघ का जन्मदिन मनाने की परंपरा
  •  बाघिन टी-1 ने 16 अप्रैल 2010 को दिया था इस बाघ शावक को जन्म 
  • गरिमामय समारोह में "अवर टाइगर रिटर्न" पुस्तक का भी हुआ विमोचन

पन्ना का बाघ पी-111 जिसका हर साल मनाया जाता है जन्मदिन। 

।। अरुण सिंह ।।

पन्ना। बाघ पुनर्स्थापना के लिए पूरी दुनिया में एक मिसाल बन चुके मध्यप्रदेश के पन्ना टाइगर रिजर्व में 12 वर्ष पूर्व जंगली बाघ का जन्मदिन मनाने की अनूठी परंपरा शुरू हुई थी। जिसका निर्वहन पन्नावासी बड़े ही उत्साह के साथ करते आ रहे हैं। जैसा कि सर्वविदित है कि वर्ष 2009 में पन्ना टाइगर रिजर्व बाघ विहीन हो गया था, उस समय यहां पर बाघों के उजड़ चुके संसार को फिर से आबाद करने की मंशा से बाघ पुनर्स्थापना योजना शुरू की गई। योजना के तहत बांधवगढ़ से पन्ना लाई गई बाघिन टी-1 ने 16 अप्रैल 2010 को यहां अपनी पहली संतान को जन्म दिया, जिससे पन्ना का जंगल जो शोक गीत में तब्दील हो चुका था, वह गुलजार हो गया। कामयाबी की खुशी वाले इसी दिन की मधुर स्मृति में 16 अप्रैल को हर साल प्रथम बाघ शावक का जन्मोत्सव मनाया जाता है।

गौरतलब है कि पन्ना में जंगली बाघ का जन्मदिन मनाने की परंपरा तत्कालीन क्षेत्र संचालक पन्ना टाइगर रिजर्व आर. श्रीनिवास मूर्ति ने शुरू की थी। टाइगर मैन के नाम से प्रसिद्ध हो चुके श्री मूर्ति के अथक प्रयासों व टीम वर्क की मजबूत भावना के चलते पन्ना में बाघों का उजड़ा संसार फिर आबाद हो सका है। यहां की चमत्कारिक सफलता को देख दुनिया न सिर्फ आश्चर्यचकित हुई अपितु कई देशों ने पन्ना माडल से प्रभावित होकर उसका अनुकरण भी किया। वर्ष 2019 तक बाघ का जन्मदिन बड़े धूमधाम से एक पर्व की तरह मनाया जाता रहा। शहर के प्रमुख मार्गों से जागरूकता रैली भी निकलती रही। लेकिन कोरोना काल में जन्मोत्सव प्रतीकात्मक रूप में मनाया गया। इस वर्ष जब कोरोना संक्रमण का खतरा कम हुआ और बंदिशों से मुक्ति मिली तो बाघ का जन्मदिन श्री मूर्ति की मौजूदगी में धूमधाम से मनाया गया।

बाघ के जन्मदिन पर केक काटते डॉ. दिनेश एम पंडित साथ में राजमाता दिलहर कुमारी व श्री मूर्ति।  

हालांकि समारोह का आयोजन शासकीय तौर पर नहीं हुआ लेकिन पन्नावासियों ने अपनी सक्रिय भागीदारी से समारोह को अविस्मरणीय बना दिया। आम जनमानस में भी अब यह समझ निर्मित हुई है कि प्रकृति और पर्यावरण का संरक्षण करके ही पृथ्वी को विनाश से बचाया जा सकता है। हमारा वजूद भी इसी बात पर निर्भर है कि हम सह-अस्तित्व की भावना से जीना सीखें। क्योंकि कुदरत जब विनाश की पटकथा लिखती है तो कथित रूप से सुपर पावर कहे जाने वाले राष्ट्र भी बौने साबित होते हैं। कोरोना संकट इसका जीता जागता उदाहरण है।

जन्मोत्सव समारोह में शामिल रहे गणमान्य जन

 


बेहद गरिमामई माहौल में आयोजित हुए इस समारोह में पन्ना शहर के गणमान्य जन जहां शामिल हुए, वहीं कई सेवानिवृत्त वनअधिकारी जिनकी भूमिका बाघ पुनर्स्थापना में रही है, वे भी पहुंचे। समारोह में राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त वयोवृद्ध शिक्षक देवी दत्त चतुर्वेदी जी जिन्होंने स्कूली बच्चों को प्रकृति व वन्य जीवों के बारे में नेचर कैंप के माध्यम से जागरूक करने का कार्य किया, वे हुए भी शामिल हुए। इतना ही नहीं प्रणामी संप्रदाय के धर्मगुरु व ख्यातिलब्ध सर्जन डॉ. दिनेश एम पंडित, राजमाता दिलहर कुमारी व प्रतिष्ठित चिकित्सक डॉ विजय परमार की मौजूदगी समारोह में रही। गणमान्य जनों ने केक काटकर बाघ के जन्मोत्सव को यादगार बना दिया। इस मौके पर आर. श्रीनिवास मूर्ति व पियूष सेकशरिया द्वारा लिखित पुस्तक "अवर टाइगर रिटर्न" के संशोधित दूसरे संस्करण का विमोचन भी अतिथियों द्वारा किया गया। पन्ना बाघ पुनर्स्थापना के महती कार्य में किसी न किसी रूप में अपनी भूमिका निभाने वाले पन्नावासियों व वन अधिकारियों ने इस मौके पर रोचक संस्मरण भी सुनाये।

मध्यप्रदेश को टाइगर स्टेट बनाने में पन्ना की क्या है भूमिका ?



मध्यप्रदेश का पन्ना टाइगर रिज़र्व वर्ष 2009 में जब बाघ विहीन हो गया तो इसका असर यह हुआ कि मध्यप्रदेश के सिर से टाइगर स्टेट का ताज भी छिन गया। पन्ना बाघ पुनर्स्थापना योजना को मिली चमत्कारिक सफलता के बाद जब यहाँ बाघों का कुनबा फिर से आबाद हुआ और इनकी तादाद तेजी से बढ़ी तो वर्ष 2018 में मध्यप्रदेश फिर टाइगर स्टेट बन गया। विदित हो कि 2018 में हुई बाघों की देशव्यापी गणना रिपोर्ट के मुताबिक मध्यप्रदेश 526 बाघों के साथ टाइगर स्टेट का दर्जा हासिल किया। जबकि कर्नाटक 524 बाघों के साथ महज दो के अंतर से दूसरे स्थान पर रहा। जाहिर है कि पन्ना यदि आबाद न होता तो मध्यप्रदेश के टाइगर स्टेट का दर्जा हासिल कर पाना मुमकिन नहीं था। 

श्री मूर्ति बताते हैं कि वर्ष 2009 में शून्य के साथ शुरू हुआ पन्ना का सफर आज उस मुकाम तक आ पहुंचा है कि पन्ना के लोग गर्व कर रहे हैं। मौजूदा समय पन्ना टाइगर रिज़र्व में 60-70 बाघ हैं। जबकि 30-40 बाघ विंध्य और बुन्देलखण्ड क्षेत्र के जंगल में फैलकर वंश वृद्धि कर रहे हैं। बाघ पुनर्स्थापना योजना के तहत हम बाहर से कुल 7 टाइगर लाये थे लेकिन उसके बदले अभी तक हम कितने टाइगर बाहर दे चुके हैं यदि उनकी गिनती की जाय तो सभी आश्चर्य चकित होंगे। पन्ना ने जो लिया था उसे ब्याज और सूद के साथ वापस लौटा दिया है। 

भारत में हैं 2 हजार 967 से अधिक बाघ

वर्ष 2010 में रूस के सेंट पीटर्सबर्ग शहर में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय बाघ संरक्षण मंच की एक बैठक हुई थी, जिसमें विश्व के 13 टाइगर रेंज देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने हिस्सा लिया था। इस सम्मलेन में वर्ष 2022 तक बाघों की संख्या दोगुनी करने का लक्ष्य रखा गया था। इस लक्ष्य को भारत ने चार साल पहले ही 2018 में हासिल कर लिया। 

मालुम हो कि पूरे विश्‍व में सबसे अधिक बाघ संरक्षण कहीं हो सका है तो वह हमारा भारत ही है। बाघ भारत का राष्ट्रीय पशु है। भारतीयों ने बाघ को देश की शक्ति, शान, सतर्कता, बुद्धि और धीरज का प्रतीक माना है। पूरे विश्व में कुल 3,900 टाइगर बचे हैं, जिनमें से 2,967 बाघ भारत में है। इस संबंध में आई अब तक की सभी रिपोर्ट इस ओर ध्‍यान दिलाती हैं कि भारत के केरल, उत्तराखंड, बिहार और मध्यप्रदेश में बाघों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी होते देखी जा रही है। नवीनम बाघ गणना के अनुसार भारत में बाघ की संख्या 2,967 है, जो विश्व की संख्या का लगभग 70 प्रतिशत से अधिक है। कहना होगा कि 2018 की बाघ गणना के बाद, जिसे कि 2019 में जारी किया था के अनुसार भारत में बाघों की संख्या पूरे विश्व में सर्वाधिक बनी हुई है।

वीडियो : टाइगर के जन्मदिन 16 अप्रैल को पन्ना टीम के साथ जंगल में आर. श्री निवास मूर्ति  



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Wednesday, April 13, 2022

अगले 50 साल यूं ही यूरिया, डीएपी डालते रहे तो बंजर हो जाएगी धरती

  • गुजरात के राज्यपाल श्री आचार्य देवव्रत ने प्राकृतिक खेती को बताया जरुरी 
  • शून्य बजट वाली प्राकृतिक कृषि पद्धति पर राज्य स्तरीय कार्यशाला आयोजित 
  • पन्ना के स्थानीय जगन्नाथ स्वामी टाउन हॉल में भी आयोजित हुई कार्यशाला 

 भोपाल के कुशाभाऊ ठाकरे सभागार में प्राकृतिक कृषि पद्धति पर आयोजित राज्य स्तरीय कार्यशाला।  

मध्‍य प्रदेश की राजधानी भोपाल के कुशाभाऊ ठाकरे सभागार में आज बुधवार को 'शून्य बजट प्राकृतिक कृषि पद्धति' पर आयोजित राज्य स्तरीय कार्यशाला का गुजरात के राज्यपाल श्री आचार्य देवव्रत, मध्यप्रदेश के राज्यपाल मंगुभाई पटेल, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान व मंत्री श्री कमल पटेन ने दीप प्रज्वलन कर शुभारंभ किया। इसी के साथ पन्ना जिले में भी जिला स्तरीय कार्यशाला आयोजित हुई। 

पन्ना के स्थानीय जगन्नाथ स्वामी टाउन हॉल में बुधवार को आज शून्य बजट प्राकृतिक कृषि पद्धति के संबंध में जानकारियों से अवगत कराने के लिए एक दिवसीय जिला स्तरीय कार्यशाला हुई। इस अवसर पर भोपाल के कुशाभाऊ ठाकरे कन्वेंशन सेन्टर में आयोजित राज्य स्तरीय कार्यक्रम में शामिल गुजरात के राज्यपाल आचार्य देवव्रत, मध्यप्रदेश के राज्यपाल मंगू भाई पटेल, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के उद्बोधन को टाउन हॉल में उपस्थितजनों द्वारा एलईडी स्क्रीन के माध्यम से देखा और सुना गया।

पन्ना में आयोजित जिला स्तरीय कार्यशाला को वर्चुअली सम्बोधित करते हुए मंत्री बृजेन्द्र प्रताप सिंह। 

टाउन हॉल में आयोजित कार्यशाला में दिल्ली से वर्चुअली शामिल हुए खनिज साधन एवं श्रम मंत्री बृजेन्द्र प्रताप सिंह ने कहा कि फसल उत्पादन में डीएपी और रासायनिक उर्वरकों के उपयोग से फसलों की पैदावार में बढ़ोत्तरी हुई है, लेकिन जमीन की उपजाऊ क्षमता कम होने के साथ ही बीमारियों में बढ़ोत्तरी भी हुई है। उन्होंने कहा कि पुरातन कृषि पद्धति को अपनाने के साथ ही जैविक खेती के प्रोत्साहन की आवश्यकता है। लोगों का जैविक उत्पादों के प्रति रूझान बढ़ने से किसानों को जैविक उत्पादों का अच्छा दाम भी मिलले लगा है। जैविक खेती से फसल की गुणवत्तायुक्त पैदावार के साथ ही भूमि की उपजाऊ क्षमता में वृद्धि होती है। उन्होंने कहा कि गौपालन को बढ़ावा मिलने से जैविक खेती कम बजट में फायदे का सौदा साबित होगी। उन्होंने गौवंश के संरक्षण की बात भी कही और उम्मीद जताई कि यह कार्यशाला किसानों के लिए उपयोगी साबित होगी। 

जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का समाधान प्राकृतिक खेती : राज्यपाल श्री पटेल

राज्यपाल मंगुभाई पटेल ने प्रदेश के किसानों का आहवान किया कि "जब जागो-तभी सवेरा" के भाव से प्राकृतिक खेती के लिए संकल्पित हो। उन्होंने कहा कि वर्ष 1977 में राष्ट्रसंघ ने ग्लोबल वार्मिंग के संबंध में चेताया था। इसके बावजूद ग्लोबल वार्मिंग की समस्या निरंतर बढ़ती जा रही है। प्रकृति ने वर्ष में चार मौसम की व्यवस्था की है। प्रकृति के साथ खिलवाड़ करते हुए मानव जाति ने एक दिन में चार मौसम कर दिए हैं। उन्होंने कहा कि आज एक ही दिन में तेज ठंड और गर्मी दोनों हो रही है। समय रहते यदि प्रयास नहीं किए गए तो भविष्य भयावह हो सकता है। उन्होंने कहा कि जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का प्रभावी समाधान प्राकृतिक खेती है। आवश्यकता है कि यह बात हर किसान तक पहुँचाई जाए।

प्राकृतिक खेती अपनाने पर भावी पीढ़ी मानेगी आभार : आचार्य देवव्रत

गुजरात के राज्यपाल श्री आचार्य देवव्रत ने प्राकृतिक खेती के क्षेत्र में अपने अनुभव साझा करते हुए कहा कि प्राकृतिक खेती के एक काम से अनेक लाभ मिलेंगे। ग्लोबल वार्मिंग से रक्षा होगी। पर्यावरण, पानी, गाय, धरती और लोगों का स्वास्थ्य बचेगा। इससे सरकार और लोगों का धन भी बचेगा तथा भावी पीढ़ी वर्तमान पीढ़ी का आभार मानेगी। उन्होंने कहा कि रासायनिक खेती और जैविक खेती की तुलना में प्राकृतिक खेती, धरती- पर्यावरण और जीवन जगत के लिए अधिक सुरक्षित है। उन्होंने कहा कि ग्लोबल वार्मिंग भविष्य की सबसे बड़ी चुनौती है। केवल एक से दो प्रतिशत तापमान में वृद्धि से 32 प्रतिशत उत्पादन कम होगा। अत: प्राकृतिक खेती को अपनाना आवश्यक है।

जैविक खेती का मध्यप्रदेश में सबसे बड़ा रकबा : मुख्यमंत्री      


'शून्य बजट प्राकृतिक कृषि पद्धति' पर आयोजित राज्य स्तरीय कार्यशाला के शुभारंभ के मौके पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अपने संबोधन में कहा- 1 लाख 65 हजार 840 रजिस्टर्ड किसान आज इस कार्यक्रम से हर स्थान से जुड़े हैं। इस कार्यशाला में भाग लेने साढ़े नौ लाख लोगों ने ​रजिस्ट्रेशन कराया है। वे अपने घरों में भी इस कार्यक्रम को सुन रहे हैं। मध्यप्रदेश में आज जैविक खेती का सबसे बड़ा रकबा है। एक जमाना था जब रासायनिक खाद के उपयोग की आवश्यकता थी। लेकिन अब जब इसके दुष्परिणाम देखते हैं तो सचमुच में कांप जाते हैं। हम किस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। अब हमें प्राकृतिक खेती की ओर अग्रसर होना पड़ेगा। मध्‍य प्रदेश के मुख्‍यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने आगे यह भी कहा कि, ''मुझे कहते हुए खुशी है मध्यप्रदेश का गेहूं हम पूरी दुनिया में भेजने का प्रयास कर रहे हैं। सरबती, कठिया गेहूं, लोकमन ये कम पानी में होने वाली खेती है। इस पर चर्चा होगी। आने वाले दिनों में मध्यप्रदेश देश का नेतृत्व प्राकृतिक खेती में करेगा।''

गुजरात के राज्यपाल आचार्य देवव्रत ने अपने संबोधन में कहा- सभी की इच्छा है कि मेरे देश का किसान खुशहाल, समृ​द्ध हो, हमारे प्रधानमंत्री रात-दिन लगातार मेहनत कर रहे हैं। किसानों के लिए वे लगातार काम कर रहे हैं। भारत आत्मनिर्भर हो, भारत उन्नत,समृद्ध हो और किसी की ओर ना देखे ऐसा देश वो बनाना चाहते हैं। इस प्रदेश ने पूरे देश में अन्न उत्पादन के क्षेत्र में नंबर वन स्थान हासिल किया। मध्यप्रदेश में बहुत से किसान जैविक खेती को कर रहे हैं, भारत के अलग-अलग भागों में भी जैविक खेती की जा रही है। पिछले तीस-चालीस साल से केंद्र और प्रदेश सरकारें इस पर बड़ा अनुदान देती हैं। और इसे बढ़ावा भी दिया जा रहा है।

जैविक खेती के अपने अनुभवों को साझा करते हुए आपने कहा कि मैंने 5 एकड़ में जैविक खेती शुरू की। पहले साल मुझे कुछ नहीं मिला, मुझे पता था एक दो साल दिक्कत आएगी, दूसरे साल भी जैविक खेती की और 50 प्रतिशत उत्पादन बचा,तीसरे साल 80 प्रतिशत उत्पादन मिला। नियम तोड़ोगे तो नहीं मिलेगा,पूरे मनोयोग से करोगे तो जरूर मिलेगा, जहर वाली खेती, एक समय था जब उसकी मांग थी, यूएनओ की एक रिपोर्ट आई है जिसमें कहा गया है कि धरती में अगले 50 साल यूं ही यूरिया, डीएपी डालते रहे तो धरती कुछ भी पैदा नहीं कर पाएगी। साइंस की भाषा में जिस जमीन का ऑर्गेनिक कार्बन .3456 है वो लगभग बंजर हो चुकी है। भारत की यदि सारी धरती का ऑर्गेनिक कार्बन देखें तो 0.5 पर आ चुका है। अब इसमें और ज्यादा यूरिया डालना पड़ेगा, इतनी कमजोर होगी धरती कि उसमें लागत किसान की बढ़ती जाएगी, उत्पादन घटता जाएगा।

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Monday, April 11, 2022

मुख्यमंत्री ने कुंआताल मेला का शुभारंभ कर 400 करोड़ रूपये से अधिक के विकास कार्यों का किया भूमिपूजन और लोकार्पण

 

पन्ना के ऐतिहासिक कुंआताल मेला में आयोजित कार्यक्रम को सम्बोधित करते हुए मुख्यमंत्री। 

पन्ना। मध्यप्रदेश के पन्ना जिले में सुप्रसिद्ध धार्मिक स्थान मां कंकाली मंदिर में दर्शन करने के साथ ही प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने ऐतिहासिक कुंआताल मेला का आज औपचारिक शुभारंभ किया। इस अवसर पर उन्होंने 400 करोड़ रूपये से अधिक के विकास कार्यों का भूमिपूजन और लोकार्पण भी किया। मुख्यमंत्री ने कहा कि क्षेत्रवासियों पर माता कंकाली का आशीर्वाद सदैव बना रहे, मां की कृपा और चमत्कार अद्भुत है। इस अवसर पर भाजपा प्रदेश अध्यक्ष व सांसद व्ही.डी शर्मा तथा प्रदेश के खनिज मंत्री बृजेन्द्र प्रताप सिंह भी मौजूद रहे।

मुख्यमंत्री श्री चैहान ने कहा कि गरीब बेटियों के विवाह के लिए आगामी 21 अप्रैल से दोबारा मुख्यमंत्री कन्या विवाह/निकाह योजना शुरू होगी। बेटियों के विवाह के लिए 55 हजार रूपये की राशि खर्च की जाएगी। उन्होंने जिला कलेक्टर से कुंआताल परिसर में गरीब बेटियों के व्यापक स्तर पर विवाह के लिए सभी आवष्यक व्यवस्थाएं और तैयारियों के निर्देष दिए। उन्होंने कहा कि लाड़ली लक्ष्मी योजना में अब तक 43 लाख बेटियों का पंजीयन किया गया है। बेटियों के कल्याण के लिए अन्य योजनाएं भी संचालित की जा रहीं हैं। आर्थिक रूप से कमजोर और मेधावी विद्यार्थियों के मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेज सहित आईआईटी, आईआईएम जैसे संस्थाओं में प्रवेश पर फीस भरने की व्यवस्था राज्य सरकार द्वारा की जाएगी।

अपने संबोधन के दौरान मुख्यमंत्री श्री चैहान ने कहा कि मां और बहनों पर गलत नजर रखने वाले अपराधियों के विरूद्ध कड़ी कार्यवाही की जाएगी। गुंडे और बदमाशों के विरूद्ध भी कार्यवाही कर उनके घर और अचल संपत्ति को सख्ती से हटाया जाएगा। दुष्मनों का नाश होगा और जनता का उद्धार होगा। मुख्यमंत्री श्री चैहान ने कहा कि प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना और मुख्यमंत्री अन्नपूर्णा योजना में गरीब जनता को नियमित रूप से खाद्यान्न प्रदान करने की प्रभावी व्यवस्था की गई है। पात्रता पर्ची से वंचित गरीब व्यक्तियों का सूची में नाम जोड़ने के निर्देष दिए, साथ ही आर्थिक रूप से संपन्न लोगों से नाम हटवाने का आह्वान भी किया। उन्होंने राशन माफियाओं पर कड़ी कार्यवाही के सख्त निर्देष दिए।


उन्होंने कहा कि गरीब व्यक्तियों को बुनियादी सुविधा युक्त पक्के मकान की सौगात के लिए बजट में 10 हजार करोड़ रूपये का प्रावधान किया गया है। आगामी 3 साल तक हर साल 10 लाख मकान बनाए जाएंगे। आयुस्मान भारत योजना में गरीब परिवार 1 साल में 5 लाख रूपये तक का ईलाज करवा सकता है। मुख्यमंत्री स्वेच्छानुदान निधि से भी जरूरतमंदों के उपचार की व्यवस्था की गई है। उन्होंने स्वास्थ्य शिविर लगाने के निर्देष भी दिए। मुख्यमंत्री ने अवगत कराया कि किसानों के कल्याण के लिए अब तक अलग-अलग योजनाओं में 1 लाख 72 हजार रूपये की राषि उपलब्ध कराई गई हैै। किसानों के गेहूं निर्यात की व्यवस्था भी की गई है। जिससे किसानों को उचित कीमत मिल सके।

सांसद व्ही.डी शर्मा ने इस अवसर पर कहा कि कुंआताल मेला और कंकाली माता मंदिर लोगों की आस्था का प्रतीक है। इसे हमेषा अक्ष्क्षुण्ण बनाए रखना हम सबकी सामूहिक जिम्मेदारी है। उन्होंने कहा कि किसानों के हित में सरकार द्वारा कई कल्याणकारी योजनाएं संचालित की गई हैं। साल 2003 के मुकाबले 7 लाख हेक्टेयर सिंचाई क्षमता के स्थान पर अब 42 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है। केन-बेतबा लिंक परियोजना के क्रियान्वयन से सिंचाई क्षमता में बढ़ोत्तरी होगी और बुन्देलखण्ड हराभरा तथा समृद्ध बनेगा। सांसद श्री शर्मा ने ग्रामीणजनों से जलाभिसेक अभियान में भागीदारी की अपील की और पन्ना में कृषि महाविद्यालय की स्थापना की प्रक्रिया पूरी होने के बारे में अवगत कराया। खनिज साधन एवं श्रम मंत्री बृजेन्द्र प्रताप सिंह ने जिले की बहुप्रतीक्षित मांगों से मुख्यमंत्री को अवगत कराया।

कार्यक्रम के शुरूआत में मुख्यमंत्री श्री चैहान ने दीप प्रज्जवलन और कन्या पूजन कर कार्यक्रम की शुरूआत की। अतिथियों द्वारा मुख्यमंत्री को पन्ना जिले में एक जिला-एक उत्पाद के तहत चयनित आंवले का पौधा भेंट किया गया। कार्यक्रम में मुख्यमंत्री श्री चैहान ने 404 करोड़ रूपये के विभिन्न विकास कार्यों का भूमिपूजन और लोकार्पण किया। अतिथियों द्वारा मुख्यमंत्री का फूलमाला से स्वागत किया गया। इस अवसर पर पवई विधायक प्रह्लाद लोधी, जिला पंचायत अध्यक्ष रविराज यादव सहित अन्य जनप्रतिनिधि, कलेक्टर संजय कुमार मिश्र, पुलिस अधीक्षक धर्मराज मीणा सहित संबंधित विभागों के अधिकारी-कर्मचारी और बड़ी संख्या में ग्रामीणजन उपस्थित थे। कार्यक्रम का संचालन संजय सिंह परिहार और आभार प्रदर्षन विधायक श्री लोधी द्वारा किया गया।

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हिमालयन ग्रिफिन गिद्ध पन्ना टाइगर रिजर्व से 60 दिनों में पहुंचे चीन

  • देशों की सीमाओं का बंधन मनुष्यों के लिए भले हो लेकिन परिंदे इससे मुक्त हैं। वे बिना पासपोर्ट वीजा के एक देश से दूसरे देश तक हजारों किलोमीटर का सफर तय कर लेते हैं। अभी हाल ही में मध्यप्रदेश के पन्ना टाइगर रिजर्व से जीपीएस टैग किए गए हिमालयन ग्रिफिन गिद्ध 60 दिनों में 7500 किलोमीटर से अधिक की दूरी तय करके चीन पहुंचे हैं।



।। अरुण सिंह ।।   

पन्ना (मध्यप्रदेश)। भारतीय वन्यजीव संस्थान देहरादून की मदद से मध्यप्रदेश के पन्ना टाइगर रिजर्व में फरवरी 2022 में 25 गिद्धों को सौर ऊर्जा चलित जीपीएस टैग लगाए गए थे। टैग किए गए गिद्धों में 13 इंडियन वल्चर, 2 रेड हेडेड वल्चर, 8 हिमालयन ग्रिफिन एवं 2 यूरेशियन ग्रिफिन वल्चर हैं। गिद्धों को टैग करने का मुख्य उद्देश उनके आवागमन एवं रहवास के संबंध में सतत जानकारी एकत्र करना है। 

क्षेत्र संचालक पन्ना टाइगर रिजर्व उत्तम कुमार शर्मा ने बताया कि टैगिंग के पश्चात जो जानकारी निरंतर प्राप्त हो रही है, वह बहुत ही रोचक एवं गिद्धों के प्रबंधन में महत्वपूर्ण है। क्षेत्र संचालक ने बताया कि हाल ही में दो हिमालयन ग्रिफिन गिद्धों के आवागमन मार्ग के संबंध में जानकारी प्राप्त हुई है जिससे रोचक तथ्य सामने निकल कर आए हैं।



श्री शर्मा बताते हैं पहला हिमालयन ग्रिफिन HG_ 8673 के जीपीएस टैग की प्राप्त जानकारी से पता चला है कि यह गिद्ध पन्ना टाइगर रिजर्व से अपना प्रवास समाप्त कर अभी हाल ही में चीन के तिब्बत क्षेत्र में Shigatse City के समीप पहुंच गया है। यह गिद्ध पन्ना टाइगर रिजर्व से बिहार में पटना, तत्पश्चात नेपाल देश के सागरमथा राष्ट्रीय उद्यान से एवरेस्ट के समीप से होते हुए Shigatse City की यात्रा की है। इस गिद्ध द्वारा यह यात्रा लगभग 60 दिनों में 7500 किलोमीटर से अधिक दूरी तय करके की है। इसी प्रकार एक अन्य हिमालयन ग्रिफिन HG_8677 ने भी पन्ना टाइगर रिजर्व से अपनी वापसी यात्रा करते हुए नेपाल देश में प्रवेश कर लिया है, जो वर्तमान में धोरपाटन हंटिंग रिजर्व नेपाल के समीप पहुंच गया है। भारतीय वन सेवा के सेवानिवृत्त वन अधिकारी आर. श्रीनिवास मूर्ति ने गिद्धों के आवागमन व रहवास के अध्ययन पर प्रशन्नता जाहिर करते हुए कहा है कि यह वास्तविक इकोलॉजिकल रिसर्च है , जो मैं हमेशा से चाहता था।  

पन्ना में पाई जाती हैं गिद्धों की 7 प्रजातियां 

मध्यप्रदेश का पन्ना टाइगर रिज़र्व राष्ट्रीय पशु बाघ सहित आसमान में ऊंची उड़ान भरने वाले गिद्धों का भी घर है। यहां पर गिद्धों की 7 प्रजातियां पाई जाती हैं, जिनमें 4 प्रजातियां पन्ना टाइगर रिजर्व की निवासी प्रजातियां हैं। जबकि शेष 3 प्रजातियां प्रवासी हैं। गिद्धों के प्रवास मार्ग हमेशा से ही वन्य जीव  प्रेमियों के लिए कौतूहल का विषय रहे हैं। गिद्ध न केवल एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश बल्कि एक देश से दूसरे देश मौसम अनुकूलता के हिसाब से प्रवास करते हैं। प्रवासी गिद्ध बड़ी संख्या में हर साल पन्ना टाइगर रिज़र्व हजारों किमी. की यात्रा तय करके यहाँ पहुंचते हैं और प्रजनन करते हैं। ठंढ में यहाँ प्रवास करने के बाद गिद्ध गर्मी शुरू होते ही फिर अपने घर वापस लौट जाते हैं। लेकिन केन बेतवा लिंक प्रोजेक्ट के मूर्तरूप लेने पर विलुप्तप्राय गिद्धों का यह दुर्लभ हैविटेट डूबकर नष्ट हो जायेगा, जिसकी फ़िक्र शायद जिम्मेदार राजनेताओं को नहीं है।   

गिद्धों पर मंडरा रहा विलुप्त होने का खतरा 



आसमान में सबसे ऊंची उड़ान भरने वाले पक्षी गिद्धों पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। प्रकृति के सबसे बेहतरीन इन सफाई कर्मियों की जहां भी मौजूदगी होती है वहां का पारिस्थितिकी तंत्र स्वच्छ व स्वस्थ रहता है। लेकिन प्रकृति और मानवता की सेवा में जुटे रहने वाले इन विशालकाय पक्षियों का वजूद मानवीय गलतियों के कारण संकट में है। गिद्धों के रहवास स्थलों के उजडऩे तथा मवेशियों के लिए दर्द निवारक दवा डाइक्लोफिनेक का उपयोग करने से गिद्धों की संख्या तेजी से घटी है। पन्ना टाइगर रिजर्व जहां आज भी गिद्धों का नैसर्गिक रहवास है, वहां पर रेडियो टैगिंग के माध्यम से उनकी जीवन चर्या का अध्ययन निश्चित ही एक अनूठी पहल है। इससे विलुप्ति की कगार में पहुंच चुके गिद्धों की प्रजाति को बचाने में मदद मिलेगी।

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Saturday, April 9, 2022

महुआ : इस वनोपज पर निर्भर है आदिवासियों की अर्थ व्यवस्था

  • आदिवासी समुदाय में महुआ सीजन किसी पर्व की तरह होता है। महुआ जब टपकना शुरू होता है, तो रोजी रोजगार के लिए बाहर गए लोग भी वापस घर लौट आते हैं। इस तरह से यह सीजन बिछड़े परिजनों के मेल मिलाप का भी कारण बनता है। आदिवासियों का पूरा कुनबा मिलकर महुआ फूल का संग्रहण करता है।

विक्रमपुर गांव की तुलसा बाई सुबह 4 बजे घर से जंगल निकल आती है महुआ बिनने। 

।। अरुण सिंह ।।

पन्ना (मध्यप्रदेश)। सूरज उगने से पहले ही तड़के 5 बजे अपने पूरे परिवार के साथ राधारानी राजगोंड जंगल से लगे अपने खेत में पहुंच जाती हैं। इनके खेत में महुआ के छोटे बड़े लगभग 50 पेड़ हैं। इन पेड़ों के नीचे महुआ फूल बिछे पड़े हैं, जिनकी खुशबू से पूरा जंगल महक रहा है। 45 वर्षीय राधारानी कहती हैं कि "महुआ टपकने का यह सीजन हमारे लिए त्यौहार की तरह होता है, इसी से हम पलते हैं। बड़े गर्व के साथ मुस्कुराते हुए राधारानी आगे बताती हैं कि इते कामै काम है। महुआ से रीतबी तो चरवा (चिरौंजी) टूटन लगहे, फिर महुआ गोली आ जैहे, काम की कमी नहीं है"। महुआ सीजन में तो आदिवासियों के घरों में ताला लगा रहता है। क्योंकि सुबह से ही परिवार के सभी लोग टोकरी लेकर महुआ बीनने खेत और जंगलों में निकल जाते हैं।

जंगल से घिरा आदिवासी बहुल विक्रमपुर गांव जिला मुख्यालय पन्ना से 12 किलोमीटर दूर स्थित है। इस गांव में 46 परिवार हैं जिनमें अधिकांश आदिवासी हैं। राधारानी इसी गांव की निवासी है। पेड़ के नीचे बने मचान में बैठे राधारानी के पति शंकर सिंह राजगोंड ने बताया कि रात में बियारी करके इतै खेत में आ जात और पूरी रात इसी मडैया (मचान) में रहत। रात में यदि न तकिए तो नीलगाय और जंगली सुअर महुआ खा जात हैं। शंकर सिंह आगे बताते हैं कि भोनसारे (सुबह) जैसे ही दिखान लगो, पूरा परिवार महुआ बिनन लगत है। बिटिया, बहू, लड़के सभी महुआ बिनते हैं, फिर भी पूरा महुआ नहीं बिन पाते। पेड़ के नीचे महुआ सूख जाता है जिसे बटोर लेते हैं।

पेड़ के नीचे बने मचान में बैठे शंकर सिंह राजगोंड नीचे बैठी उनकी पत्नी राधारानी, पास में फैला महुआ।   

शंकर सिंह के खेत में महुआ, अचार, तेंदू और आंवले के पेड़ हैं, जो प्राकृतिक रूप से उगे हैं। खेत में यदा-कदा ही सरसों और चना बोते हैं, लेकिन इस साल बोनी नहीं की थी। वे बताते हैं कि खेत भले ही नहीं बोओ रहो, फिर भी जितने की खेत में फसल होती है उतना अकेले महुआ दे देता है। यह बिना लागत की फसल है। शंकर सिंह का कहना है कि 5 से 8 कुंटल सूखा महुआ हर साल हो जाता है, जिसे 40 से 50 रुपये प्रति किलो की दर से व्यापारी खरीद लेते हैं। महुआ फूल के अलावा महुआ गुली (फ़ल) भी 10-15 हजार रुपये का हो जाता है। अचार, तेंदू और आंवले से भी आय होती है। हमारी यह खेती पूरी तरह से प्राकृतिक बिना लागत वाली है।

विक्रमपुर गांव के ही प्रतिपाल सिंह 40 वर्ष बताते हैं कि गांव में कई ऐसे लोग हैं जिनके खेतों में महुआ के पेड़ हैं। जिनके खेत में पेड़ नहीं हैं वे महुआ बिनने के लिए जंगल जाते हैं। वे बताते हैं कि महुआ का पेड़ आदिवासियों के जीवन का अहम हिस्सा है, इसके तने की छाल से लेकर फूल और फल सभी उपयोगी हैं। प्रतिपाल सिंह बताते हैं कि जिसके खेत में महुआ के 10 बड़े पेड़ हों, उसे गांव में बड़ा आदमी (संपन्न व्यक्ति) माना जाता है। महुआ बीज का तेल ठंड में नारियल के तेल की तरह जम जाता है। आदिवासी इसे खाने के काम में लाते हैं। यह तेल त्वचा के लिए भी उत्तम माना जाता है। समाज सेवी संस्था समर्थन के रीजनल कोऑर्डिनेटर ज्ञानेंद्र तिवारी बताते हैं कि महुआ सिर्फ जंगली फूल ही नहीं, यह आदिवासी अंचल की अर्थव्यवस्था चलाता है।

प्रतिपाल सिंह 40 वर्ष बताते हैं कि गांव में कई ऐसे लोग हैं जिनके खेतों में महुआ के पेड़ हैं।

ज्ञानेंद्र तिवारी बताते हैं कि अकेले विक्रमपुर गांव में ही लगभग 150 कुंटल महुआ संग्रहित होता है। उत्तर वन मंडल पन्ना के अंतर्गत आने वाले गांव इमलौनिया पनारी, रहुनिया, खजरी कुडार, हर्षा, बगौंहा, मुटवा व जनवार सहित जंगल में बड़ी संख्या में महुआ के वृक्ष हैं, जहां आदिवासी व अन्य समुदाय के लोग महुआ बिनते हैं। वन मंडलाधिकारी उत्तर पन्ना गौरव शर्मा ने बताया कि उत्तर वन मंडल में 60 हजार से भी अधिक महुआ वृक्ष हैं। एक विकसित वृक्ष से 25 किलोग्राम से लेकर 50 किलोग्राम तक सूखा महुआ निकलता है।

अपने 9 वर्षीय पुत्र बसंत के साथ महुआ बिन रही दीपरानी 36 वर्ष निवासी विक्रमपुर बताती हैं कि इस साल अच्छा महुआ टपक रहा है। हमारे 14 एकड़ के खेत में महुआ के 27 पेड़ हैं, जिनसे कम से कम 6-7 कुंटल सूखा महुआ निकल आएगा। महुआ पेड़ की खूबी गिनाते हुए दीपरानी बताती हैं कि शहर के लोग जाड़े में महंगी क्रीम लगाते हैं और हम लोग डोरी का तेल पैरों की बेवांई से लेकर चेहरे में भी मिलते हैं। महुआ से हमें पैसा तो मिलता ही है, यह हमारी सेहत और शरीर का भी ख्याल रखता है।

75 फ़ीसदी से भी अधिक आदिवासी करते हैं महुआ का संग्रह

मध्य प्रदेश सहित छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखण्ड और आंध्रप्रदेश में महुआ के पेड़ बहुतायत से पाए जाते हैं। इन प्रदेशों का महुआ महत्वपूर्ण लघु वनोपज है। आदिवासी सहकारी विपणन विकास फेडरेशन ऑफ इंडिया ( ट्राइफेड ) के अनुसार मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा व आंध्रप्रदेश के 75 फ़ीसदी से ज़्यादा आदिवासी परिवार महुआ फूल संग्रहण का काम करते हैं। मध्यप्रदेश के उमरिया जिले में महुआ का चयन एक जिला एक उत्पाद के तहत किया गया है। इस जिले में लगभग 17000 टन महुए का उत्पादन होता है। यहां संग्रहीत होने वाले महुआ की गुणवत्ता को कायम रखने के लिए आजीविका मिशन के द्वारा समूह सदस्यों को महुआ संग्रह करने और महुआ की गुणवत्ता बनाए रखने हेतु प्रशिक्षित भी किया गया है। महुआ संग्रह करने वाले हितग्राहियों को महुआ जाली वितरित की गई है। जाली का उपयोग करने से महुआ जमीन में नीचे नहीं गिर पाता, जिससे उच्च गुणवत्ता का महुआ प्राप्त होता है।

कल्दा पठार में महुआ उत्सव की धूम


कल्दा पठार में आदिवासी समुदाय के लिए महुआ रोजी-रोटी का जरिया



मध्यप्रदेश के पन्ना जिले में दक्षिण वन मंडल अंतर्गत आने वाला आदिवासी बहुल इलाका कल्दा पठार का जंगल इन दिनों महुआ फूलों की गंध से महक रहा है। यहां के जंगलों में महुआ वृक्षों की भरमार है। कल्दा पठार में आदिवासी समुदाय के लिए महुआ रोजी-रोटी का जरिया है। इस सीजन में आदिवासियों का पूरा कुनबा महुआ फूल चुनने में लगा रहता है। लघु वनोपज सहकारी संघ मर्यादित दक्षिण वन मंडल पन्ना से प्राप्त जानकारी के अनुसार कल्दा पठार के श्यामगिरी सहित रामपुर, मैनहा, पिपरिया, जैतूपुरा, टोकुलपोंडी, भोपार, कुसमी, झिरिया व डोंडी आदि में तकरीबन 3 हजार कुंटल महुआ फूल का संग्रहण हो जाता है।

कल्दा पठार के कुसुआ आदिवासी बताते हैं कि पेड़ों से इस कदर महुआ फूल टपकते हैं कि दिन भर बिनने के बाद भी पूरे फूल हम नहीं चुन पाते। इस सीजन की सबसे बड़ी खूबी और विशेषता यह भी है कि महुआ फूल आने पर बिछड़े परिजनों का भी मिलन हो जाता है। पठार के जो लोग रोजी-रोटी की तलाश व अन्य कारणों से बाहर चले जाते हैं, वे भी महुआ सीजन में वापस घर लौट आते हैं। पठार के आदिवासी बताते हैं कि अमदरा, मैहर, पवई व सलेहा के व्यापारी यहां आकर आदिवासियों से महुआ खरीदकर ले जाते हैं। लघु वनोपज सहकारी संघ के मुताबिक मध्यप्रदेश में 75 हजार कुंटल से भी अधिक महुआ फूल की खरीदी होती है।

महुआ फूल का समर्थन मूल्य 35 रुपये किलो



मध्यप्रदेश के वन मंत्री डॉ कुंवर विजय शाह ने बताया कि प्रदेश सरकार ने वनवासियों के हित में 32 लघु वनोपज प्रजातियों का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) निर्धारित किया है। महुआ फूल का समर्थन मूल्य 35 रुपये प्रति किलो है। वनोपज की खरीदी के लिए 179 खरीदी केंद्र और लघु वनोपज के 47 गोदामों का निर्माण कराया गया है। प्रधानमंत्री वन धन विकास योजना के तहत प्रदेश के 19 जिला यूनियनों में 107 वन धन केंद्र की स्थापना की गई है।

प्रतिपाल सिंह राजगोंड बताते हैं कि सरकार द्वारा घोषित समर्थन मूल्य 35 रुपये काफी कम हैं। इससे ज्यादा कीमत पर व्यापारी गांव में आकर महुआ फूल खरीद कर ले जाते हैं। प्रतिपाल का कहना है कि 40 से 45 रुपये प्रति किलो की दर से महुआ बाजार में अभी बिक रहा है। माह-2 माह बाद यही महुआ 50 से 60 रुपये प्रति किलो की दर से बिकेगा।  समर्थन संस्था के ज्ञानेंद्र तिवारी बताते हैं कि समर्थन मूल्य कम होने के कारण कुल उत्पादन का 15-20 फ़ीसदी महुआ की भी सरकारी खरीद नहीं होती। उत्पादित महुआ समर्थन मूल्य से अधिक दर पर व्यापारी खरीद रहे हैं। गौरतलब है कि मध्यप्रदेश के शहडोल, उमरिया, मंडला, बालाघाट, डिंडोरी, पन्ना व छतरपुर जिलों में महुआ का प्रचुर मात्रा में उत्पादन होता है।

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